________________
( ११६ )
वृहत् जैन शब्दार्णव
अङ्गपाहुड़
अङ्गप्रविष्ट श्रुतज्ञान
|
(३६) लोक पाहुड़ (४०) वस्तु पाहुड़ (४१) विद्या पाहुड़ (४२) विहिया पाहुड (४३) शिक्षा पाहुड़ (४४) पट पाहुड़ (४५) पटदर्शन पाहुड़ (४६) समयसार पाहुड़ (४७) समवाय पाहुड (४८) संस्थान पाहुड़ (४९) साल्मी पाहुड़ (५०) सिद्धान्त पाहुड़ (५१) सूत्र पाहुड़ (५२) स्थानपाहुड़ इत्यादि ८४ पाहुड़ ग्रन्थ तथा द्वादशानुप्रेक्षा आदि अन्य कई ग्रन्थ प्राकृतभाषा में हैं। पाहुड़ को प्राभ्रत भी कहते हैं जिसका अर्थ 'अधिकार' है ।
और पवित्र जिनधर्म व जैनधर्मियों पर अनेक अत्याचार होते हुये देख कर इनका मन दुखित था । जब ११ वर्ष की वय में मुनिदीक्षा लेने के पश्चात् गुरु के सन्मुख यह भले प्रकार विद्याध्ययन कर चुके और उग्रोग्र तपश्चरण द्वारा इन्होंने आत्मबल बहुत उच्च श्र ेणी का प्राप्त कर लिया तो गुरुआशा लेकर शैवों तथा अन्य धर्मावलम्बियों से भी बड़े बड़े शास्त्रार्थ कर भारतवर्ष भर में अपनी विजयपताका फैरा दी । अन्यमती बड़े २ दिग्गज विद्वान इनकी विद्वता और तपोबल के चमत्कार को देख कर इन के चरणसेवक बन गये जिस से लुत सा होता हुआ पवित्र दयामय जिनधर्म प्राणीमात्र के भाग्योदय से फिर से सम्हल गया ॥
नोट २. - श्री कुन्दकुन्द स्वामि के जन्म के समय मालवादेश में जिसे उस स मय 'अवन्तिदेश' कहते थे शक्रवंशी जैनधर्मी राजा 'कुमुदचन्द्र' का राज्य था जिसे धारानगराधीश 'धार' के दौहित्र और 'गन्धर्वसेन' के पुत्र 'विक्रमादित्य' ने किसी न किसी प्रकार अवसर पाकर अपनी १८ वर्ष की वय में अपने अधिकार में कर लिया और उज्जैननगरी को अपनी राजधानी बना कर 'वीरवि क्रमादित्य शकारी' के नाम से अपना राज्याभिषेक कराया और इसी दिन से इस विजय की स्मृति में अपने नामका एक सम्वत् प्रचलित किया । पश्चात् थोड़े ही दिनों में इसने अपने बाहुबल से गुजरात, मगध, बंगाल, उडीसा आदि अनेक देशों को अपने राज्य में मिला कर बड़ी प्रसिद्धि प्राप्त की और २२ वर्ष की वय में राजाधिराजपद प्राप्त कर लिया ।
यह पक्काशैवी और जैनधर्म का द्वेषी था । अतः इसके राज्य में शिवसम्प्रदाय का बल इतना अधिक बढ़ गया कि जैनधर्म प्रायः लुप्त सा दिखाई पड़ने लगा । इसके राज्य अभिषेक के | समय 'श्री कुन्दकुन्दाचार्य' की वय केवल १३ वर्ष की थी। शैवों का दल और बल अनौचित्त रीति से दिन प्रतिदिन बढ़ता हुआ
Jain Education International
1
नोट ३ - श्री कुन्दकुन्दाचार्य या वीरविक्रमादित्यशकारी का विशेष चरित्र जानने के लिये देखो ग्रन्थ "बृहतविश्वचरितार्णव" ॥
अङ्गप्रविष्ट - अंग में प्रवेश पाया हुआ,
अंग के अन्तर्गत, द्वादशांग तज्ञान, अक्षरात्मक श्रुतज्ञान के दो मूलभेदों में से एक भेद जो १२ 'अंगों' में विभाजित है ॥
अङ्गप्रविष्टश्रुतज्ञान- पूर्ण 'अक्षरात्मक
ज्ञान' के दो विभागों अर्थात् (१) अं प्रविष्ट और (२) अंगवाल में से प्रथम विभाग | ( जो शब्द "अक्षरात्मक श्रुतज्ञान” ) ॥
पूर्ण अक्षरात्मक श्र तज्ञान का यह वि भाग निम्न लिखित १२ अङ्गों में विभाजित है जिस में सर्व अपुनरुक्त अक्षरों की संख्या १८४४६७४४०७३६२६४४३४४० ( बीस अप्रमाण ) है जिस के ११२८३५८००५
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org