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अगायणी-पूर्व . वृहत् जैन शब्दार्णव
अगायणी-पूर्व जिन में से “कर्म प्रकृति” नामक चौथे | ६७२० पाहुडांग अर्थात् प्राभृतप्रभृत या पाहुड़ अर्थात् प्राभूत में (१) कृति (२) योनद्वार नामक अधिकार हैं । वेदना (३) स्पर्श (४) कर्म (५) प्रकृति
____ नोट २--इस 'आगायणीयपूर्व' सम्बंधी (६) बन्धन (७) निवन्धन (८) प्रक्रम (९) पूर्वोक्त १४वस्तु में से 'अच्यवन'नामक पञ्चम उपकूम (१०) उदय (११) मोक्ष (१२) वस्तु के जो उपयुक्त २० प्राभृत हैं उन में से संवम (३३) लेश्या (१४) लेश्याकर्म (१५) 'कर्म प्राभृत' नामक चतुर्थ प्राभृतके चौबीसों लेश्या-परिणाम (१६) सातासात (१७) |
योगद्वारों के अन्तिम पूर्ण ज्ञाता मुनि 'श्रीदीर्घढस्व (१८) भवधारण (१६) पुदग-धरसेन' थे जो प्रथम अङ्ग 'आचारांग'के पाठी लात्मा (२०) निधत्तानिधत्तक (२१) १६वर्ष रह कर वीर नि०सं० ६३३ में गिरनार सनिकाचित (२२) अनिकाचित (२३) पर्वत की चंद्रगुहा से स्वर्गवासी हुए। कमस्थिति (२४) स्कन्ध, यह २४ अपनी आयु के अन्तिम भाग में इन्होंने यह "योगद्वार" है ।।
| 'कर्मप्राभूत' 'श्री पुष्पदंत' और 'भतवलि' इस पूर्व में ६६ लक्ष मध्यम पद हैं । एक शिष्योंको पढ़ायां जो शुभ मिती आषाढ़ शु० मध्यम पद १६३४८३०७EEE अपुनरुक्त | ११ को समाप्त हुआ। इन्होंने इस प्राभूत का अक्षरों का होता है।
| उपसंहार करके (१) जीवस्थान (२) क्षुल्लकनोट १–“पूर्वगत" के चौदह भेद (१) |
| बंध (३) वन्धस्वामित्व (४). भाववेदना उत्पाद (२) आग्रायणीय (३) वीर्यानुप्रवाद
(५) वर्गणा (६) महावन्ध, इन छह खंडों में (४) अस्तिनास्तिप्रवाद (५) शानप्रवाद (६)
उसे रचकर लिपिवद्ध किया और उसकी सत्यप्रवाद (७) आत्मप्रवाद (E) कर्मप्रवाद
ज्येष्ठ शक्ल ५ को चतुर्विधसंघ सहित वेष्ठनादि (९) प्रत्याख्यान (१०) विद्यानुवाद (११)
में वैष्ठित कर यथा विधि पूजा की। इसी कल्याणवाद (१२) प्राणानुवाद (१३) क्रिया-'
| लिये यह शुभ तिथि उसी दिन से 'श्रु त विशाल (१४) लोकविन्दुस्सार । इन में क्रम |
। पञ्चमी' कहलाती है। से १०. १४, ८, १८, १२, १२, १६, २०, ३०, नोट ३-उपयुक्त छह खंडों में से १५. १०, १०, १०, १०, सर्व १९५ वस्तु पहिले पांच खंड ६००० (छह सहस्न ) सूत्रोंमें नामक अधिकार हैं। हर वस्तु नामक अधि- और छटा खंड ३०००० ( तोस सहन ) सूत्रों कार में बोस बीस प्राभृत या पाहुड़ नामक में रचे गये । यह छहों खंड मिलकर 'षटअधिकार हैं जिन सर्व की गणना ३६०० है। खंडसूत्र' के नाम से तथा 'कर्मप्राभृत' के हर प्रामृत या पाहुड़ में चौबीस २ 'प्राभूत- नाम से भी प्रसिद्ध है । इन्हीं को प्रथम श्र त प्राभृत या पाहुडाङ्ग या योगद्वार नामक स्कंध' या 'प्रथमसिद्धांतग्रन्थ' भी कहते हैं । अधिकार हैं । जिन सर्व की संख्या ६३६०० है नोट४- उपर्युक्त श्रीधरसेन आचार्य अर्थात् “पूर्वगत" के चौदही भेदों में सर्व के ही लगभग काल में एक 'श्री गुणधर' । ६३६००पाहुडाङ्ग या प्राभृतप्राभत या योगद्वार आचार्य थे जिन्हें उपयुक्त १४ पूर्वी में से ५ वें नामक अधिकार है और केवल आग्रायणीय- 'ज्ञानप्रवाद' पूर्वके अन्तरगत जो १२ वस्तु हैं पर्व' में १४ वस्तु के सर्व २८० पाहुड़ या | उनमें से दसवीं वस्तुके तीसरे कषाय-प्राभूत'
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