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वृहत् जैन शब्दार्णव
अग्निभूति
(स्थिंडिला ) नामक पण्डिता, सुशीला और सुलक्षणा स्त्रीके उदरसे तो दो बड़े भाइयोंका जन्म सन् ईस्वी के प्रारम्भसे क्रमसे ६२५ वर्ष और ५६= वर्ष पहिले हुआ और तीसरे छोटे भाई 'वायुभूति' का जन्म उस की दूसरी बुद्धिमति, विदुषी स्त्री 'केशरी' नामक के उदर से ३ वर्ष पश्चात् अर्थात् सन् ईस्वी से ५९५ वर्ष पूर्व हुआ । गौर्वरग्राम में प्रायः उस समय ब्राह्मण वर्ग के लोग ही बसते थे और उन ब्राह्मणों में गौत्तमी ब्राह्मण बल, वैभव, ऐश्वर्य और विद्वत्ता आदि के कारण अधिक प्रतिष्ठित गिने जाते थे । इसी लिये इस ग्राम का नाम 'ब्राह्मण' या 'ब्राह्मपुरी' तथा 'गौत्तमपुरी' भी प्रसिद्ध होगया था । पिता ने इन तीनों ही प्रिय पुत्रों को विद्याध्ययन कराने में कोई कमी नहीं की जिस से थोड़ी ही वय में यह कोष, व्याकरण, छन्द, अलङ्कार, तर्क, ज्योतिष, सामुद्विक, वैद्यक, और वेद वेदांगादि पढ़ कर विद्या निपुण हो गए। इन की विद्वता, बुद्धिपटुता और चातुर्यता लोक प्रसिद्ध हो गई और इस लिये दूर दूर तक के विद्यार्थी विद्याध्ययन करने के लिये इनके पास आने लगे जिससे थोड़े ही समय में कई कई सौ विद्यार्थी इनके शिष्य हो गए ॥
सन् ई० से ५७५ वर्ष पूर्व मिती श्रावण कृ० २ को जब 'अग्निभूति' (गार्ग्य) के जेठ भ्राता इन्द्रभूति अपनी लग भग ५० वर्ष की वय में श्री महाबीर तीर्थङ्कर से, जिन्हें इसी मगध देशान्तरगत ऋजुकूटी नदी के पास इस मिती मे ६६ दिन पूर्व मिती वैशाख शु० १० को तपो बल से ज्ञानावरणादि ४ घातिया कर्म
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अग्निभूति
मल दूर होकर कैवल्यज्ञान (असीम, आवरणादि रहित ज्ञान या त्रिकालज्ञता ) प्राप्त हो चुका था शास्त्रार्थ करने के विचार से उनके पास पहुँवे और उनके तप, तेज और ज्ञान शक्ति से प्रवाहित होकर तुरन्त गृहस्थाश्रम त्याग मुनि दीक्षा ग्रहण करली तो उसी दिन 'अग्निभूति' ने भी लगभग २३ वर्ष की वय में अपने लघु भ्राता और प्रत्येक भाई के कई कई शिष्यों सहित सहर्ष दीक्षा स्वीकृत की और यह तीनों ही भाई श्री वीर बर्द्धमान जिन (महावीर तीर्थङ्कर ) के क्रम से प्रथम, द्वितीय और तृतीय गणाधीश अर्थात् अनेक अन्य मुनि गण के अधिपत बने ।
अग्निभूति गणधर दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् थोड़े ही दिनों में अन्य गणधरों की समान तपोबल, मनः शुद्धि और आत्मसंयम से अनेक ऋद्धियां प्राप्त कर शीघ्र ही द्वादशांग - ( १ ) आचाराङ्ग, ( २ ) सूत्रकृतांग, ( ३ ) स्थानांग, (४) समवायाङ्ग, ( ५ ) व्याख्या प्रज्ञप्ति, (६) शातृधर्मकथा, (७) उपासकाध्ययनांग, (८) अन्तःकृद्दशांग, अनुत्तरोष्पादिकदशांगल (१०) प्रश्नव्याकरणांग, (११) विपाकसूर्भाग, ( १२ ) दृष्टिवादाङ्ग, जिसके अन्तरगत अनेक भेदोपभेद हैं-केपाठी पूर्ण श्रुतज्ञानी बन गये और केवल २४ वर्ष कुछ मास की युवावस्था ही में जड़ शरीर को परित्याग कर उत्तम देव गति को प्राप्त हुए । इन के शिष्य मुनि सब २१३० थे। जिन दीक्षा ग्रहण करने से पहले इन के शिष्य लग भग ५०० थे । [ पीछे देखो शब्द अकम्पन (६) और उसका नोट ] ॥
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