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२. सम्बन्ध-इस गून्थरत्न का मुख्य सम्बन्ध जैन साहित्य रत्नाकर से है ।
३. विषय-जैन साहित्य रत्नाकर के अणित शब्द रत्नों का परिक्षान इसका मुख्य विषय है।
४.प्रयोजन(निमित्त)-अगणित जैन ग्रन्थों में आए हुए पारिभाषिक व ऐतिहासिक आदि सर्व प्रकार के शब्दों के अर्थ और वस्तु स्वरूप आदि का यथार्थ ज्ञान इस एक ही महान ग्रन्थ की सहायता से प्राप्त हो सके, तथा जिस शब्द का अर्थ आदि ज्ञानना अभीष्ट हो वह अकारादि कम से ढूँढने पर तुरन्त बड़ी सुगमता से इसमें मिल जाय, यही इसका मुख्य प्रयोजन है॥
२. षड़ांग १. मङ्गल ( मंगलाचरण)-- (१) शब्दार्थ-मपाप, दोष, मलीनता, इत्यादि।
गल = गलाने वाला, नष्ट करने या घातने वाला, इत्यादि । अथवा-मंग=पुप्य, सुख सम्पत्ति, लाभ, इत्यादि। ल लाने वाला, आदान या गृहण या संग्रह करने वाला, प्रकाश डालने
वाला, इत्यादि । (२) भावार्थ-स्वेदादि वाह्य द्रव्यमल, ज्ञानावरणादि अष्टकर्म रूप अन्तरंग द्रव्यमल तथा
अज्ञान या मिथ्याज्ञानादि भावमल को जो नष्ट करे, अथवा जो पुण्य और सर्व प्रकार की सुख सम्पत्ति आदि को ग्रहण करावे उसे मंगल कहते हैं । मंगल की व्यव.
हृति को "मंगलाचरण' कहते हैं। (३) भेद--१. नाम, २. स्थापना, ३. द्रव्य, ४. क्षेत्र, ५. काल, ६. भाक, यह छह मंगल के ।
१. नाम मंगल--परमब्रह्म परमात्मा का नाम, अथवा पंच परमेष्ठि वाचक ॐकार या।
अर्हन्त, सिद्ध आदि के नाम को 'नाममंगल' कहते हैं। २. स्थापना मंगल-परमब्रह्म परमात्मा की अथवा पंच परमेष्ठि की कृत्रिम या अकृ
त्रिम तदाकार या अतदाकार प्रतिमा या प्रतिबिम्ब को "स्थापनामंगलं" कहते हैं। ३. द्रव्य मंगल-अर्हन्त, आचार्य, आदि पूज्य पुरुषों के चरणादि पौद्गलिक शरीर को
'द्रव्य मंगल' कहते हैं। ४. क्षेत्रमंगल-पूज्य पुरुषों के तप आदि कल्याणकों की पवित्र भूमि, कैलाश,सम्मेद।
शिखर, गिरिनार, आदि सर्व तीर्थ स्थानों को "क्षेत्र मंगल" कहते हैं। ५. काल मंगल-पूज्य पुरुषों के तपश्चरण आदि के पर्व काल को व अष्टान्हिक आदि
पर्व तिथियों को "कालमंगल" कहते हैं। ६. भावमंगल-उपर्युक्त पांचों मांगलिक द्रव्यों में भक्तिरूप भाव को अथवा भक्तियुत
आत्मद्रव्य या चेतन द्रव्य को भी "भाव मंगल" कहते हैं। (४) हेतु-१. निर्विघ्नता से ग्रन्थ की समाप्ति २.नास्तिकता का परिहार ३.शिष्टाचार
पालन.४. उपकारस्मरण । इन चार मुख्य हेतुओं से प्रत्येक ग्रन्थकार को ग्रन्थ की आदि में, या आदि और अन्त में, अथवा आदि, मध्य और अन्त में परमात्मा या अपने
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