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| अइलक
वृहत् जन शब्दाणव
अइलक
वस्त्र धारी या चेल खंडधारी-श्रावक, गृह करै, गत्रि को नियम पूर्वक प्रतिमा-योग त्यागी या अगृहस्थ-श्रावक, और उत्कृष्ट धारण कर (नग्न होकर) यथा शक्ति आत्म श्रावक भी कहते हैं । यह दोनों ही अपने स्वरूप चिन्तवन, परमात्मविचार आदि उद्देश्य से बने हुए भोजन के त्यागी होते धर्म ध्यान करैः हैं। इसी लिये 'उहिष्ट-त्यागी' कहलाते हैं। 'अइलक'वह विरक्त आर्यहै जोनीचे लिखे
(६) सन्मुख आये उपसर्ग पारिषह ( उपनियाका भलेप्रकार दृढ़तासे पालनकरे:
द्रव, विपत्ति या कष्ट) को वीरता और
साहस के साथ जीते, कायर न बने, जान (१) स्वेत * कोपीन (लङ्गोटो) के अति- बूझ कर किसी उपसर्ग परीषद के सन्मुख न रिक्त सर्व वस्त्रादि परिग्रह का त्यागी हो;
जाय; अति कठिन आखिड़ी (प्रतिशा) न (२) दया निमित्त केवल एक पिच्छिका ले और न मुनिब्रत धारण किये बिना त्रिकाल (मयूर पीछी) और शौच निमित्त केवल योग अर्थात् ग्रोप्म, वर्षा, और शीत ऋतु एक काठ का 'कमण्डल' सदा साध रखे;
की परीषह (पीड़ा) जीतने के सम्मुख हो; (३) डाढ़ी, मूछ और मस्तक के केशों का
(७) मुनिव्रत धारण करने का सदा लौंच (अपने हाथों से बाल उखाड़ना) अभिलाषी रहे, निरन्तर इसी को लक्ष्य हर दो तीन या चार माल में करता रहे
बनाकर निज कक्षा सम्बन्धी नियमों का (४) भोजन को ईर्यापथ-शुद्धि' पूर्वक
पालन नि:कषाय, निःशल्य और विषय जाय, गृहस्थके आँगन तक जहाँतक किसी
वासना रहित विरक्त भाव से करै; के लिये रोक टोक न हो जाय; 'अक्षयदान'
(८) उपर्युक्त नियमों के अतिरिक्त प्रथम या 'धर्मलाभ' कहै; गृहस्थ यथा योग्य
प्रतिमा ( कक्षा ) से दशम तक के तथा भक्ति व श्रद्धा सहित विधि पूर्वक पड़गाहे
११वीं 'प्रथमोदिष्टविरत' (क्षुल्लक व्रत) अर्थात् आहार देने को उद्यत हो तो यथा
सम्बन्धी व्रत नियमादि भी यथा योग्य स्थान बैठ कर और अन्तराय टाल कर
पालन करै ॥ 'करपात्र' में शुद्ध भोजन करै, नहीं तो अन्य गृह चला जाय; पाँच घर से अधिक न | नोट १.-ऐलक को 'कर पात्र-मोजीजाय; एक दिन में एक ही घर का आहार | श्रावक', 'कोपीन मात्र-धारी श्रावक', सर्वकेवल एक ही बार ले, यदि अन्तराय हो| | त्कृष्ट श्रावक' तथा 'आर्य' और 'यती' मा जाय तो उस दिन निर्जल उपवास करैः । कहते है ॥ __(५) हर मास में दोनों अष्टमी और दोनों चतुर्दशी के दिन विधिपूर्वक प्रोषधोपवास
____ नोट २.-आगे देखो शब्द 'एकादश
प्रतिमा' और 'अगारी' ॥ ... * किसी किसी आचार्य की सम्मति में | लाल कोपीन भी ग्राह्य है।
(सागार ध० अ०७ श्लोक ३७-४६)
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