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अगार वृहत् जैन शब्दार्णव
अगारी से कम ) और उत्कृष्ट ६६ सागरोपम है। (२) सद्गुण-गुरुपूजक-सदाचार, स्वजिस व्यक्ति को जिस प्रकार का सम्यग्दर्शन | परोपकार, दया, शील, क्षमा आदि सद्गुणों प्राप्त होता है उसे उसीप्रकार का "सम्यग्दृष्टी" | और उनके धारक पुरुषों तथा माता पिता या "सम्यक्ती" या "तत्त्वज्ञानी" या आत्म- | आदि में भक्ति रखने वाला। शानी" या "मोक्षमार्गी" कहते है । (देखो (३) सद्गी-सत्य, मधुर और हित मित शब्द "अकस्मात् भय" के नोट १, २, ३, और बचन बोलने वाला ॥ पृ. १३, १४ शब्द "सम्यग्दर्शन" आदि ) ॥ो (४) त्रिवर्गसाधक --धर्म, अर्थ, काम, अगार-आगार, सदन, गृह, घर, मकान | इन तीनों पुरुषार्थों को परस्पर विरोध रहित गृहस्थाश्रम, श्रावकधर्म; बन्धन रहित, 1 धर्म
धर्म की मुख्यता पूर्वक साधन करने वाला ॥ | मुक्त, विवन्ध रोग, समुद्र ॥ .
(५) गृहिणीस्थानालयी-सुशीलापति
व्रता स्त्री सहित ऐसे नगर, ग्राम, घर में अगारी ( अगारि)-गृहस्थी, घर में |
| निवास करने वाला गृहस्थी जहां त्रिवर्ग रहने या बसने वाला, कुटुम्ब परिवार | साधन में किसी प्रकार की बाधा न पड़े ॥ सहित रहन सहन करने वाला; ब्रती (६) हीमय-लज्जावन्त, निर्लज्जता मनुष्य के दो भेदों अर्थात् 'अगारी' और | रहित । 'अनगारा' अथवा 'आगारी' और 'अना- (७) युक्ताहारविहारी-जिस का खान गारी' में से एक पहिले भेद का नाम; सप्त | पान, गमनागमन, बैठ उठ आदि सर्व क्रिया व्यसन त्यागी और अष्ट मूलगुणधारी योग्य और शास्त्रानुकूल हो। गृहस्थी; अणुव्रती गृहस्थ,देशव्रती श्रावक, (८) सुसंगी-सदाचारी सज्जन पुरुषों वह गृहस्थ जिसने सम्यग्दर्शन पूर्वक ५ पापों की संगति में रहने वाला और कुसंग त्यागी॥ अर्थात् हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन या (6) प्राश-बुद्धिमानी से हर कार्य के अब्रह्म, और परिग्रह का एकदेश (अपूर्ण)| गुणावगुण विचार कर दूर दर्शिता पूर्वक त्याग किया हो; वह गृहस्थ जो त्रिशल्य- काम करने वाला ॥ रहित अर्थात् माया, मिथ्या,निदान रहित (१०) कृतज्ञ-पराये किये उपकार को ५ अणुव्रत ( अहिंसाणुब्रत, सत्याणुव्रत, | कभी न भूलने वाला और सदा प्रति उप. अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत, और परिग्रह | कार का अभिलाषी ॥ परिमाणाणुब्रत ) का धारक हो, तथा जो (११) वशी ( जितेन्द्रिय)-इन्द्रियाधीन सप्तशील अर्थात् ३ गुणव्रत और ४शिक्षा- | न रहकर मन को वश में रखने वाला ॥ व्रत को भी पञ्चाणुव्रत की रक्षार्थपालताहो |. (१२) धर्मविधि श्रोता-धर्मसाधन के
और अन्त में सल्लेखना अर्थात् समाधि | कारणों को सदा श्रवण करने वाला ॥ मरण सहित शरीर छोडे । इन सर्व व्रतों (१३) दयाल - दया को धर्म का मल को अतिचार रहित पालन करने वाले | जान कर दुःखी, दरिद्री, दोनों पर दया गृहस्थी को पूर्ण सागारधर्मी अर्थात् भाव रखने वाला ॥ सागार धर्म को पूर्णतयः पालन करने वाला (१४) अघमी ( पाप भीरु )-दुराः श्रावक कहते हैं ।
चरणों से सदा भय भीत रहने वाला ॥ नोट १-ऐसे श्रावक के नीचे लिखे १४ | इन १४ लक्षणों या गुणों को धारण करने लक्षण या गुण हैं:
वाला पुरुष पूर्ण सागारधर्मी ( अगारी या (१) न्यायोपार्जित-धन-ग्राही-न्याय आगारी) बनने के योग्य होता है। ऐसा पुरुष पूर्वक धन कमा कर भोगने वाला। उपयुक्त गुणों की रक्षार्थ निम्न लिखित नियमों
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