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अखाद्य
वृहत् जैन शब्दार्णव
अगणप्रतिबद्ध
और धर्म सेवन में बाधा डालने वाला हो हानियां पहुँचाने से सांसारिक व पारमार्थिक जाता है। मस्तिष्क में स्थूलता आजाने से | कार्यों में बाधा डालते हैं । आत्मविचार में रुकावट पड़ जाती है ।। नोट २-इन २२ अभक्ष्य पदार्थों के कञ्चे दुग्ध या दही में से निकालने के दो सम्बन्ध में विशेष जानने के लिये देखो शब्द घड़ी पश्चात् से इसमें सूक्ष्म त्रस जीव अग- | "अभक्ष्य" ॥ णित उत्पन्न हो हो कर मरने लगते हैं। इसी लिये कुछ घंटों में या एक दो दिन में ही
अखिलविद्याजलनिधि-विद्यारूपी जल जध अनन्तानन्त जीवों का कलेवर उस में
का पूर्ण समुद्र; यह उपाधि किसी संग्रहीत हो जाता है तो प्रत्यक्ष उस में
असाधारण विद्वान कवि को राजा की ओर दुर्गन्धि आने लगती है। वर्ण और स्वाद
से दी जाती है । 'खगेन्द्रमणिदर्पण' नामक भी बहुत कुछ बदल जाता है । अतः इसे
वैद्यक ग्रन्थ के रचयिता जैन महाकवि खाने में मांस समान दोष उत्पन्न होजाते हैं ।
'मंगराज प्रथम' को यह श्रेष्ठ उपाधि विजय
नगराधीश "हरिहर" से मिली थी। यह (१६) वारुणी या शुण्डा अर्थात् मद्य
कर्णाटक देश निवासी कवि विक्रम की या सुरा (मदिरा या शराब )---यह प्रत्यक्ष
छटी शताब्दी के सुप्रसिद्ध आचार्य रूप से अगणित जीवों के कलेवरों के रसयुक्त, दुर्गन्धित, बुद्धि-विनाशक, स्मरणशक्ति
"श्रीपूज्यपाद यतीन्द्र" का, जो तत्वार्थघातक, कामोद्दीपक, विषयवासनावद्धक
सूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका के कर्ता हैं, और परमार्थवाधक है।
एक शिष्य था। इसे सुललितकविपिक(२०) अति तुच्छ फल ( अपनी मर्यादा
वसन्त, विधुवंशललाम, कविजनैकमित्र, से बहुत छोटा फल जिसमें अभी बढ़ने की
अगणित गुणनिलय, पंचगुरुपदाम्बुज भृग, शक्ति विद्यमान है)-यह साधारण निगोद
इत्यादि अन्यान्य उपाधियां भी प्राप्त थीं। राशि का घर होने से मस्तिष्क को हानि
यह कर्णाटक देशस्थ देवलगे प्रान्त के मुख्य
पत्तन "मुगुलेयपुर" का स्वामी था। इस कारक, मनोविकारवर्द्धक और आत्मोन्नति
की धर्मपत्नी का नाम कामलता था जिस में वाधक होते हैं।
के उदर से तीन पुत्र जन्मे थे। (देखो ग्रन्थ (२१) प्रालेय या तुहिन अर्थात तुषार
'वृ. वि. च०' में शब्द 'मंगराज') या हिम (पाला या बर्फ़ )-यह इन्द्रोपल या ओले की समान दूषित है।
अगडदत्त-शंखपुर नरेश “सुन्दर" की (२२) चलितरस-मर्यादावाह्य होजाने
सुलसा रानी का एक पुत्र जो अपनी स्त्री से या किसी प्रकार की असावधानी आदि ।
का दुश्चरित्र देख कर सांसारिक विषय से मर्यादा से पूर्व भी जिन पदार्थों का स्वाद ।
भोगों से विरक्त हो गया था । (अम्मा०)॥ बिगड़ जाता है उन्हें 'चलितरस' कहते हैं। अगणप्रतिबद्ध-अन्तरङ्ग तप के ६ भेदों ऐसे खाने पीने के सर्व ही पदार्थों में सूक्ष्मत्रस में से 'प्रायश्चित' नामक प्रथम भेद का जीवों की उत्पत्ति और मरण का प्रारम्भ हो एक उपभेद अर्थात् वह प्रायश्चित जिसके जाता है जिससे शीघ्र ही उनमें खटास,जाला, अनुसार किसी अपराध के दंड में गुरु की फूली, तार बंधना, रंग बदल जाना, इत्यादि | आशानुसार कुछ नियत काल तक मुनि को किसी न किसी एक या अधिक प्रकार का | संघ से अलग रह कर किसी ऐसे देश के परिवर्तन हो जाता है । ऐसे पदार्थ शारीरिक | बन में श्रद्धा पूर्वक मौन सहित तप करना और मानसिक दोनों ही प्रकार की अनेक पड़े जहां के मनुष्य धर्म से अनभिज्ञ हो।।
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