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( ४७ ) अखाद्य वृहत् जैन शब्दार्णव
अखाद्य के से आकार में प्रत्यक्ष दृष्टि गोचर होने | इस के खाने में हानि पहुँचने की सम्भा-1 लगती है जो यथार्थ में निरन्तर जीवन मरण | वना है ॥ करते रहने वाले उन्हीं अगणित सूक्ष्म जीवों के | (१३)कन्दमूल-आलू , कचालू, रतालू, कलेवरों का पिंड होती है । इसके अतिरिक्त | पिंडालू, कसेरू, अदरक, हलदी, अरुई, या लगभग सर्व ही प्रकार के अथाने, मुख्यतः | अरवी ( घुईयाँ ), शकरकन्दी, ज़मीकन्द, जो तैल से तईयार किये जाते हैं और जिनमें | इत्यादि जिनका कंद या पिंङ ही बीज है खटास होती है, वीर्य को कुछ न कुछ दूषित ! और जो पृथ्वी के अभ्यन्तर ही उत्पन्न करते, बुद्धि और स्मरण शक्ति को हानि पहुँः होते और बढ़ते हैं उन्हें “कन्द" कहते चाते और मस्तिष्क को बलहीन करते हैं। | हैं। और मूली, गाजर, शलजम, प्याज़, गांठइसी लिये आत्मोन्नति में भी बाधक हैं। | गोभी, इत्यादि जिनका बीज होता है और इन्हें जितना अधिक सेवन किया जाता है जिन पर फूल लगकर फली लगती हैं और उतना ही यह मनुष्य को अधिक जिह्वा | प्रायः जिनकी जड़ें ही खाने में आती हैं लम्पटी और थोड़ी असावधानी से ही शरी
| उन्हें “मूल' कहते हैं । यह कन्द और मूल सङ्गों को शीघ्र रोग ग्रहण कर लेने के योग्य भी | दोनों ही प्रायः कामोद्दीपन करते और बना देते है ।इनमल बिषयलम्पटता को बढ़ाकर आत्मोन्नति और
(७-११) रक्तपदा या यक्षावास अर्थात् | धार्मिक कार्यों में बाधा डालते हैं । इन में बड़-फल या बड़बट्टा; अश्वत्थ फल या | सूक्ष्म निगोद जीवों की उत्पत्ति भी अधिक कुंजराशन-फल अर्थात् पिप्पल-फल या | होती है। गेपलो; यक्षांग या हेमदुग्ध अर्थात् ऊमर या (१४ ) मृत्तिका (मिट्टी) आँतों में कीड़े घटुम्बर या जन्तुफल या गूलर; वनप्रियाल | | उत्पन्न करती और मस्तिष्क को निर्बल गमलाय या फल्ग अर्थात जंगली अंजीर | बनाती है॥ । कठिया गूलर या कठूमर; और प्लक्ष या |
(१५) विष या ज़हर-यह साधाभांडक या पर्कटी फल अर्थात् पिलखन
रणतः प्राणान्त करने वाला पदार्थ है। और पाकर या पकरिया फल; इन पांचों ही वृक्षों | यदि इसे वैद्यक शास्त्र के नियमानुकूल यथा फल काठ फोड़कर बिना फूल आये उत्पन्न | विधि भी भक्षण किया जाय तो कामोहीपन ते हैं और इन सर्व ही में प्रत्यक्ष रूप से त्रस करता और विषय लम्पटी बनाता है । वों की उत्पत्ति अधिक होती है । यद्यपि
अतः आत्मोन्नति के इच्छुकों को यह त्याज्य धेना फूल ओये काठ फोड़कर निकलने वाले पर्व ही फल बुद्धि को कुछ न कुछ स्थूल
(१६) पिशित या पल या पलल या रते और मस्तिष्क को हानि पहुँचा कर
आमिष अर्थात् मांस-त्रस जीवों अर्थात् त्मोन्नति में बाधा डालते हैं तथापि यह पांचों
द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के सर्व जीवों के |धिक हानिकारक होने से २२ मुख्य अभक्ष्य
कलेवर की "माँस" संज्ञा है। इसके भक्षण दार्थों में गिनाये गये हैं।
में निम्नलिखित बहुत से दूषण हैं:(१२) अजान फल-जिसके नाम और | १. स जीव मुख्यतः पंचेन्द्रिय जीव ण आदि से हम अनभिज्ञ हैं तथा जिसे | घात, जो स्वयम् एक महा पाप है। मने अन्य मनुष्यों को खाता हुआ भी कभी | २. प्राणान्त होते ही से माँस सड़ने लगता हीं देखा हो उसे 'अजानफल' कहते हैं । है अर्थात् उसमें प्रति समय अगणित प्रस से अभक्ष्य में इस लिये गिनाया है कि जीव उत्पन्न हो हो कर मरते रहते हैं जिससे
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