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अक्षर
( ३२ )
वृहत् जैन शब्दार्णव
२ ऐरुओ२ औ २ ॥
६ प्लुत स्वर जिनके उच्चारण में तीन मात्रा- काल लगता है- - आ ३ ई ३ऊ ३ ॠ ३ ल ३ | ए ३ ऐ ३ ओ ३ औ ३ ॥ -
४ योगवाह जिनका उच्चारण किसी दूसरे अक्षर के योग से ही होता है— . (अनुस्वार - यह चिन्ह किसी स्वर या व्यंजन के ऊपर यथा आवश्यक लगाया जाता है ), : (विसर्ग - यह चिन्ह किसी व्यञ्जन के आगे यथा आवश्यक लगाया जाता है), (जिह्वामूलीय -यह चिन्ह 'क, ख' के पूर्व यथाआवश्यक लगाया जाता है), X (उपध्मानीय - यह चिन्ह 'पफ' के पूर्व यथाआवश्यक लगाया जाता है), इस प्रकार ३३ व्यञ्जन, २७स्वर, और ४ योगवाह, यह सर्व ६४ मूल अक्षर हैं।
( गो० जी० गा० ३५१ - ३५३)
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अक्षर
नोट १ -- अन्य अपेक्षा से अक्षर के ३ भेद भी हैं - (१) लब्ध्यक्षर (२) निर्वृत्यक्षर और (३) स्थापनाक्षर । ( आगे देखो शब्द "अक्षरज्ञान" का नोट १ ) ॥
नोट २ - उपर्युक्त ६४ मूलाक्षरों से जो मूल वर्णों सहित एक कम एकट्टी अर्थात् १८४४६७४४०७३७०६५५१६१५ असंयोगी (६४ मूलाक्षर ), द्विसंयोगी, त्रिसंयोगी, चतुः संयोगी, पंच संयोगी आदि ६४ संयोगी तक के अक्षर बनते हैं उनके जानने की प्रक्रिया निम्न प्रकार हैं:
उदाहरण के लिये क् ख् ग् घ् ङ्, इन ५ मूल अक्षरों से असंयोगी और संयोगी सर्व रूप कितने और किस प्रकार बन सकते हैं यह बात नीचे दिये कोष्ठ से पहिले भली प्रकार समझ लेनी चाहिये:
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