________________
अक्षयबड़
वृहत् जैन शब्दार्णव
अक्षर
अक्षयबड़-वह बटवृक्ष जिसके नीचे प्रथम अक्षर-(१) स्थिर, नाश रहित, अच्युत तीर्थङ्कर "श्रीऋषभदेव" ने "प्रयागनगर" नित्य, आकाश, मोक्ष, परमात्मा, ब्रह्म,धर्म, के बन में जाकर दिगम्बरी दीक्षा धारण धर्मद्रव्य, अधर्म द्रव्य, कालद्रव्य,तर, जल॥ की थी जिसके सहस्रों वर्ष पश्चात् नष्ट (२) अकारादि वर्ण ॥ होजाने पर भी लोग किसी न किसी रूप __ अकारादि अक्षरों के मूल भेद दो हैंमें उस स्थान को आज तक पूज्य मान भावाक्षर और द्रव्याक्षर। भावाक्षर अनादिकर पूजते चले आते हैं । प्रयागराज जिस निधन अकृत्रिम हैं जिनसे व्याक्षरों की का प्रसिद्ध नाम आज कल 'इलाहाबाद' है रचना कालविशेष तथा क्षेत्रविशेष में उसके किले में एक नक़ली बट वृक्ष त्रिवेणी अनेक प्रकार से अनेक आकारों में यथा(गङ्गा यमुना का सङ्गम ) के निकट अब आवश्यक होती रहती है । वर्तमान कल्प भी विद्यमान है । जिसे लोग "अखय- काल के वर्तमान अवसर्पिणी विभाग में वट" के नाम से पूजते हैं॥
द्रव्याक्षरों की रचना सर्व से प्रथम श्री नोट-गया” में भो एक वटवृक्ष है जो ऋषभदेव ने अयोध्यापुरी में की । और सहस्रों वर्ष पुराना होने से 'अक्षयवट' सर्व से पहिले अपनी बड़ी पुत्री "ब्राह्मी" | कहाता है । जगन्नाथपुरी में भी इस नाम का को यह अक्षरावली सिखाई । इसी लिये
एक वृक्ष होने का लेख मिलता है परन्तु अब इस 'अक्षरावली' का नाम "ब्राह्मीलिपि" | वहां इस नाम का कोई वृक्ष नहीं है । दक्षिण प्रसिद्ध हुआ । इस लिपी में ६४ मूल वर्ण भारत में नर्मदा नदी के निकट और सीलौन और एक कम एकट्ठी अर्थात् १८४४६७ (लङ्का ) टापू में भी अति प्रचीन और बहुत ४४०७३७०६५५१६१५ मूल वर्णों सहित बड़े एक एक वट वृक्ष हैं॥
संयोगीव की संख्याहै जिनके अलग अलग अक्षय श्रीमाल-ढुढारी भाषा भाषी एक
आकार नियत किये गये हैं । ६४ मूलाक्षर
निम्न प्रकार हैं:स्वर्गीय साधारण जैन विद्वान्-इन्होंने एक
३३ व्यञ्जनाक्षर जिनके उच्चारण में अर्द्ध"धर्मचर्चा" ग्रन्थ ढुढारी भाषा वचनिका
मात्रा-काल लगता है- क् ख् ग् घ् ङ् । च | (गद्य) में लिखा । ( देखो ग्रन्थ “वृहत्
छ् ज् झ् ञ । ट् ठ् ड् द् ण् । त् थ् द् धू विश्वचरितार्णव')
न् । प् फ् ब् भ् म् । य र ल व् । श्ष् अक्षयसप्तमी-भादों कृ० ७, इसे अक्षय
स् ह॥ ललिता भी कहते हैं । सोल्हवें तीर्थङ्कर ___ ह्रस्व स्वर जिनके उच्चारण में एकश्रीशान्तिनाथ इसी तिथि को भरणी नक्षत्र मात्रा-काल लगता है-अ इ उ क ल । ए में हस्तिनापुर के राजा "विश्वसैन" की ऐ ओ औ॥ रानी “ऐरादेवी के गर्भ में सर्वार्थसिद्धि ___६ दीर्घ स्वर जिनके उच्चारण में दोविमान से चयकर अवतरे ॥ .
मात्रा-काल लगता है-आई ऊ ऋ ल ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org