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अकण्डूयक
वृहत् जैन शब्दार्णव
अकम्पन
शयन' इस प्रकार सोने को कहते हैं कि सोते समय शरीर में खाज उठने पर भी न खुजलाया जावे॥
नोट १-यह अकण्डुक-शयन'वाह्यतपके षटभेदोंमें से पंचम 'काय क्लश' नामक तपके अन्तर्गत 'शयन-काय क्लश' का एक भेद है जिसे शरीर ममत्व त्यागी निम्रन्थ मुनि कर्मनिर्जरार्थ पालन करते हैं ।
नोट २-इच्छाओंके घटाने या दूर करने को तथा इच्छाओं और क्रोधादि सब कषायों या मनोविकारों को नष्ट करनेकी विधि विशेष को 'तप' कहते हैं। अकण्डूयक-शरीर में खाज उठने पर
भी न खुजाने वाला; नखुजाने की प्रतिज्ञालेने वाला साधु ॥ अकतिसंचित-अगणित, एकत्रित; एक | समय में अनन्त उत्पन्न होने वाले जीवों का समूह (अ०मा०)॥
जाँगल ) देशके दूसरे महा मंडलेश्वर राजा 'सोमप्रभ' के पुत्र 'जयकुमार' (मेघेश्वर ) को स्वयम्बर में अपना पति स्वीकृत किया । और दूसरीछोटी पुत्री 'अक्षमाला' श्री ऋषभदेव के पौत्र 'अर्ककीर्ति' को, जी भरत चक्रवर्ती का सबसे बड़ा पुत्र था और जिस से 'अर्कवंश' अर्थात् “सूर्यवंश" का प्रारम्भ हुआ, व्याही गई । वर्तमान अव. सर्पिणी कालमें "स्वयम्बर" की पद्धति सब से पहिले इसी राजा अकम्पन' ने चलाई । इसके चार मंत्री (१) श्रृतार्थ (२) सिद्धार्थ १३; सर्वार्थ और (४) सुमति थे. जो बड़े ही योग्य और गुणी थे। 'भरत' चक्री इस राजा को पिता की समान बड़े आदर की दृष्टि से देखते थे । अन्त में इस राजा ने अपने बड़े पुत्र हेमाङ्गदत्त' को राज्य देकर मुनिव्रत लेतपोबन को पयान किया। बहुत काल तक उग्रोग्र तपश्चरण कर सर्व कर्मों की निर्जरा की और निर्वाणपद प्राप्तकर सांसारिक दुःखों से मुक्ति प्राप्त की।
अकम्पन-इस नाम के निम्नलिखित कई इतिहास प्रसिद्ध पुरुष हुए:
(१)काशी देश के एक महा मंडलेश्वर | राजा-यह वर्तमान कल्प के वर्तमान अवसर्पिणीय विभागान्तर्गत दुःखम सुखम नामक गतचतुर्थ काल के प्रारम्भ में प्रथम तीर्थकर “श्रीऋषभ देव" के समयमें हुए । नाभिपुत्र श्रीऋषभदेव ने इसे एक सहस्र मुकुटबन्ध राजाओं का अधिपति बनाया जिससे "नाथवंश" की उत्पत्ति हुई। इसकी • एक बड़ी सुपुत्री 'सुलोचना' ने कुरु ( कुरु |
(२) 'उत्पल-खेट' नगर के राजा 'बज़जंघ' (श्री ऋषभदेव का अष्टम पूर्व भवधारी पुरुष जो बीच में ६ जन्म और धारण कर अष्टम जन्म में 'श्री ऋषभदेव' तीर्थकर हुआ) का सेनापात-यह इसी राजा के पूर्व सेनापति 'अपराजित' का पुत्र था जो अपराजित की धर्म पत्नी 'अर्यवा' के उदर से जन्मा था। जिस समय 'वजूजङ्घ', अपने मातुल तथा श्वसुर 'वजूदन्त' चक्री के मुनि दीक्षा धारण करने के समा चार मिलने पर,उसको राजधानी "पुण्डरी किणी" नगरी की ओर स्व-स्त्री (वजूदन्त
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