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पाप निवारण के उपाय
१०४१ पुष्पों, आभूषणों, भड़कीले परिधानों, मालाओं, अंजनों, चन्दन - लेप, दन्तमंजन के सेवन की अनुमति दी है। दक्ष (परा० मा०, ३१, पृ० ४३८) का कथन है कि जब कोई व्यक्ति सूर्य के उत्तरायण या दक्षिणायन होने के दिन या विषुव के दिन ( जब रात और दिन बराबर होते हैं) या सूर्य ग्रहण या चन्द्र ग्रहण के समय रात और दिन उपवास करता है और स्नान करता है तो वह सभी पापों से मुक्त हो जाता है । " मनु ( ११।१६६ - अग्नि० १६९।३१ ) ने घास, ईंधन, वृक्ष, सूखे भोज्य पदार्थ ( चावल आदि), वस्त्र, खाल एवं मांस की चोरी के प्रायश्चित्त के लिए तीन दिनों का उपवास निर्धारित किया है। अनुशासनपर्व ( १०६।१) ने कहा है कि सभी वर्णों के लोगों ने एवं म्लेच्छों ने उपवास की महत्ता गायी है। सभी धर्मों ( पारसियों को छोड़कर) ने, यथा-- हिब्रू, ईसाई (लेण्ट में ) एवं मुस्लिम ( रमजान में) ने अपने मन के नियन्त्रण एवं प्रायश्चित्त के लिए उपवास की महत्ता समझी है। भविष्य ० ( १, अध्याय १६।१२- १४) का कथन है कि अग्निहोत्र न करनेवाले लोग व्रतों, निग्रहों, दानों और विशेषतः उपवासों द्वारा देवों को प्रसन्न रख सकते हैं; इसने प्रतिपदा से १५वीं तिथि तक के भोज्य पदार्थों के नाम गिनाये हैं ( श्लोक १८ - २२ ) । शत० ब्रा० तथा श्रौत एवं गृह्यसूत्रों में उपवसथ शब्द उपवास के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है ( उप + वस् ) । आप० ध० सू० (२|१|१|४-५ ) ने पति-पत्नी के लिए पर्व के दिन उपवास की व्यवस्था दी है और कहा है कि यदि वे बिना खाये न रह सकें तो दिन में केवल एक बार उपवास के योग्य पदार्थ ग्रहण कर सकते हैं। अपरार्क ( पृ० १९९), स्मृतिच० ( श्राद्ध, पृ० ३५५), कृत्यरत्नाकर ने व्यास को उदधृत कर 'उपवास' की व्युत्पत्ति बतायी है ।" आप० ध० सू० (२/५/९-१३), बौधा० ध० सू० (२/७/३२), वसिष्ठ० (६।२१), शांखायनगृह्य० (२।१६।५ ) में एक वाक्य है, यथा- 'आहिताग्नि, गाड़ी का बैल एवं ब्रह्मचारी -- ये अपना कार्य खाकर करते हैं, वे बिना खाये अपने कर्तव्यों का सम्पादन नहीं कर सकते।' यह कथन प्रायश्चित्तों एवं एकादशी के उपवासों में नहीं प्रयुक्त होता ( आप० ध० सू० २।७।३४) । शान्तिपर्व ( ३२३ | १७) का कथन है---" जिस प्रकार गन्दा वस्त्र आगे चलकर जल से धो लिया जाता है उसी प्रकार उपवास की अग्नि
तपाये गये व्यक्ति के पास समाप्त न होनेवाला आनन्द आ जाता है ।" शान्तिपर्व में एक स्थान (७९।१८) पर और आया है – “उपवास से शरीर को दुर्बल कर देना तप नहीं है, प्रत्युत अहिंसा, सत्य वचन, अनिर्वयता, निग्रह एवं कृपा ही तप के द्योतक हैं।"
तीर्थयात्रा - ऐसा विश्वास था कि तीर्थयात्रा करने एवं पवित्र नदियों ( यथा गंगा) में स्नान करने से मनुष्य पाप कटते हैं । विष्णु० ( ३५। ६) में आया है कि महापातकी लोग अश्वमेध से या पृथ्वी पर पवित्र स्थानों की यात्रा करने से पवित्र हो जाते हैं । देवल ने कहा है कि यज्ञों के सम्पादन या तीर्थों की यात्रा द्वारा जान-बूझकर न की गयी ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति मिल सकती है। पराशर ( १२।५८) का कथन है कि चारों वेदों के ज्ञाता ब्राह्मण की हत्या करनेवाले को सेतुबन्ध (रामेश्वर ) जाना चाहिए।” देवल का कथन है — “व्यक्ति तीर्थस्थानों एवं देवमन्दिरों में जाने
१०. अयने विषुवे चैव चन्द्रसूर्यग्रहे तथा । अहोरात्रोषितः स्नात्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ दक्ष ( परा० मा० १, १, पृ० ४३८ ) । विषुव के समय रात और दिन बराबर होते हैं।
११. 'उपावृत्तस्य पापेभ्यो यस्तु वासो गुणैः सह । उपवासः स विज्ञेयः सर्व भोगविवर्जितः । अपरार्क, पृ० १९९ । 'गुणैः' का अर्थ है 'क्षमादिभि:' एवं 'बासः' का अर्थ है 'नियमेनावस्थानम्' ।
१२. चातुविद्योपपन तु निधने ब्रह्मघातके । समुद्रसेतुगमनं प्रायश्चित्तं विनिविशेत् ॥ पराशर (१२।५८, अपरार्क, पृ० १०६१; प्राय० वि० पू० ४५) । प्रायश्चितप्रकाश ने कहा है- "ब्रह्महत्याव्रतमुपक्रम्य भविष्यपुराणे;
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