________________
१०४०
धर्मशास्त्र का इतिहास बात विष्णु० (९२१४) ने भी कही है। संवर्त (२०४) में आया है कि सोने, गाय, भूमि का दान इस जन्म एवं अन्य जन्मों में किये गये पापों को काट देता है। मेधातिथि (९।१३९) ने कहा है कि हिंसा करने से जो पाप होते हैं उनके प्रायश्चित्तों के लिए व्यवस्थित उपायों में दान प्रमुख है। दान के विषय में हमने इस ग्रन्थ के खंड २, अध्याय २५ में विस्तार के साथ पढ़ लिया है। दो-एक बातें और दे दी जा रही हैं। बहुत-से शिलालेखों एवं ताम्रपत्रकों में जो भूमिदानों एवं ग्राम-दानों का वर्णन है उसमें यह लक्षित है कि दाताओं ने अपने एवं अपने माता-पिता के उत्तम फल अथवा उनके पुण्यों की वृद्धि के लिए ये दान किये हैं (एपि० इण्डिका, जिल्द ९, पृ० २१९, पृ० २२१)। बृहस्पति (मदनरत्न, व्यवहार, पृ० ६६) ने व्यवस्था दी है कि राजा को भूमि-दानपत्रकों में यह लिखित करा देना चाहिए कि उसने यह दान अपने एवं अपने माता-पिता के पुण्य के लिए किया है। राजतरंगिणी (१।१४३) ने विहारों की स्थापना की ओर संकेत किया है।
___उपवास-उपवास करने का वास्तविक अर्थ है अन्न-जल का पूर्ण त्याग, किन्तु साधारणत: इसका अर्थ है थोड़ी मात्रा में हलका भोजन (जो भोज्य पदार्थ के स्वभाव पर भी निर्भर है) करना। ते० सं० (१।६।७।३-४) में दर्शपूर्णमास-इष्टि के दिनों के व्रत की तीन विधियाँ वर्णित हैं, यथा--ग्राम में प्राप्त भोजन पर ही रहना,या वन-भोजन करना,या कुछ न खाना। गौतम (१९।११) ने उपवास को पापमोचन की कई विधियों में रखा है। उसके अनुसार तप भी एक साधन है। किन्तु गौतम ने एक स्थान (१९।१६) पर उपवास (या अनाशक) को 'तपांसि' अर्थात् तपों में रखा है। हरदत्त (गौतम १९।११) ने उपवास को भक्त (भात या पके हुए चावल) के त्याग के अर्थ में लिया है,
और कहा है कि उपवास एक बार पुनः 'तपांसि' के अन्तर्गत इसलिए रखा गया है कि इसकी बड़ी महत्ता है। हरदत्त ने लिखा है कि उनके एक पूर्ववर्ती लेखक ने उपवास को 'इन्द्रिय-निग्रह' के अर्थ में लिया है। गृह्यसूत्रों में उपवास का अर्थ है यज्ञों में प्रयुक्त होनेवाले अनाज से बने भोजन का दिन में केवल एक बार हलका प्रयोग, किन्तु उसके साथ शाक, माष (दाल), नमक एवं मांस का प्रयोग मना है (गोभिल० १।५।२६; खादिर० २।११४ एवं ६; कौशिकसूत्र १।३१, ३२; काठक० ४६।२)। बृहदा० उप० (४।४।२२)ने अनाशक (उपवास)को तप से संयुक्त कर कहा है कि यह परमात्मा की अनुभूति के लिए साधन-स्वरूप है। जैमिनि (३।८।९-११) ने उपवास को तप माना है। मनु (११॥ २०३-विष्णु० ५४।२९) का कथन है कि एक दिन का उपवास वेदव्यवस्थित कृत्यों (यथा दर्शपूर्णमास यज्ञ या सन्ध्यावन्दन) को छोड़ देने एवं स्नातक के विशिष्ट कर्मों को प्रमाद से छोड़ देने पर प्रायश्चित्त रूप में किया जाता है (मनु ४१३४)। उपवास करते समय कई कर्म छोड़ देने पड़ते हैं। बार-बार पानी पीने से उपवास का फल जाता रहता है, इसी प्रकार पान (ताम्बूल) खाने, दिन में सोने एवं संभोग से इसका फल नष्ट हो जाता है (देवल, अपरार्क पृ० १९९, स्मृतिच० २, पृ० ३५५) किन्तु गरुडपुराण (१।१२८१६) एवं भविष्यपुराण (१।१८४।२७) ने उपवास के समय
(१९।१६ एवं १८); अथाप्युदाहरन्ति । यत्किचित्कुरुते पापं पुरुषो वृत्तिकशितः । अपि गोचर्ममात्रेण भूमिदानेन शुध्यति ॥ वसिष्ठ० (२९।१६)। 'गोचर्म' के अर्थ के लिए देखिए इस ग्रन्थ का खंड ३, अध्याय १६।
८. सुवर्णदानं गोदानं भूमिदानं तथैव च। नाशयन्त्याशु पापानि अन्यजन्मकृतान्यपि ॥ संवर्त (२०४, प्रायः तत्त्व पृ० ४८३)। हिंसायां दानमेव मुख्यमित्युक्तं भविष्ये। हिंसात्मकानां सर्वेषां कौतितानां मनीषिभिः। प्रायश्चित्तकदम्बानां दानं प्रथममुच्यते ॥ प्राय० प्र०।
९. दत्त्वा भूम्यादिकं राजा ताम्रपट्टे पटेऽथवा। शासनं कारयेद्धम्यं स्थानवंश्यादिसंयुतम् ॥ मातापित्रोरात्मनश्च पुण्यायामुकसूनवे। दत्तं मयामुकायाच वानं सब्रह्मचारिणे ॥ बृहस्पति (मदनरत्न, व्यवहार, पृ० ६६)।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org