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धर्मशास्त्र का इतिहास
मनु (११।२६१-२६२), वसिष्ठ (२७।१-३), अंगिरा (१०१) आदि का कथन है कि जिस प्रकार अधिक वेगवती अग्नि हरी घास को भी जलाकर भस्म कर देती है, उसी प्रकार वेदाध्ययन की अग्नि दुष्कर्मों से प्राप्त अपराध को जला डालती है या वह ब्राह्मण, जो (पढ़े हुए) ऋग्वेद का स्मरण रखता है, अपराध से अछूता रहता है, भले ही उसने तीनों लोकों का नाश कर दिया हो या उसने किसी का भी दिया हुआ भोजन कर लिया हो। किन्तु ये वचन केवल अर्थदाद (प्रशंसामय) हैं और इन्हें गम्भीरता से या शाब्दिक अर्थ में नहीं लेना चाहिए, जैसा कि वसिष्ठ (२७४४ == अंगिरा १०२) ने सावधान किया है-"वेद की सामर्थ्य का सहारा लेकर पापकर्म का लाभ नहीं उठाना चाहिए (जैसा कि कुछ स्मृतियों ने कह डाला है), केवल अज्ञान एवं प्रमाद से किये गये दुष्कर्म ही वेदाध्ययन से नष्ट होते हैं न कि अन्य दुष्कर्म (जो जान-बूझकर किये जाते हैं)।'
बहुत-सी स्मृतियों, यथा-मनु (११।२४९-२५७ - विष्णु० २।७४।४-१३), वसिष्ठ० (२६।५-७ एवं २८।१०-१५), विष्णु० (५६१३-२७), शंख (अध्याय ११ वसिष्ठ० २८०१०-१५), संवर्त (२२७-२२८), बौधा. ध० सू० (४।२।४-५, ४१३८, ४।४।२-५), याज्ञ० (३।३०२-३०५) ने पापमोचन के लिए कतिपय वैदिक सूक्तों, पृथक्-पृथक् वैदिक मन्त्रों या गद्य-वचनों के पाठ का निर्देश किया है। स्थानाभाव से हम उन्हें यहाँ उद्धृत नहीं करेंगे।
ऋग्वेद के मन्त्रों को इतनी रहस्यात्मक महत्ता प्रदान की गयी है कि शौनक के ऋग्विधान (जो मनुस्मृति के उपरान्त प्रणीत हुआ) ने बहुत-से रोगों, पापों एवं शत्रु-विजय के लिए कतिपय ऋडमन्त्रों के जप की व्यवस्था बतलायी है। सामविधान ब्राह्मण (१।५।२) का कथन है कि जहाँ सामान्यत: किन्हीं विशिष्ट वैदिक सूक्तों के पाठ की व्यवस्था न हुई हो, ऐसे स्थल में चाहे जो कोई वैदिक मन्त्र पापों को दूर करने में समर्थ होता है। ऐसे मन्त्र तप के साथ पवित्रीकरण में सहायक होते हैं। इसी प्रकार अभीष्ट उद्देश्य के प्रायश्चित्त के लिए सामों का जप कम-से-कम दस से लेकर सौ बार करना चाहिए। गौतम (१९।१३) ने जप के समय भोजन की व्यवस्था यों दी है केवल दूध पर रहना, केवल शाक-भाजी खाना, केवल फल खाना, एक मुटठी जी का सत्तू या लपसी खाना, केवल सोना खाना (घृत में कुछ सोना घिसकर खाना), केवल घृत खाना, सोम पीना आदि। गौतम (१९।१४) ने कहा है कि सभी पर्वत, सभी नदियाँ, पवित्र सरोवर, तीर्थ, ऋषियों के आश्रम, गोशालाएँ, देव-मन्दिर पाप के नाशक हैं।
सूत्रकाल में या उसके उपरान्त केवल तीन उच्च वर्णों का पुरुष-वर्ग ही वेदाध्ययन कर सकता था, अतः शूद्रों द्वारा पाप-मोचन के लिए वैदिक वचनों का जप सम्भव नहीं था। इसलिए मिताक्षरा (याज्ञ० ३१२६२) का कथन है कि यद्यपि शूद्र (एवं स्त्रियों और प्रतिलोम विवाहों से उत्पन्न लोगों) को गायत्री एवं अन्य वैदिक मन्त्रों के जप का अधिकार नहीं प्राप्त है, तथापि शूद्र एवं स्त्रियाँ देवता के नाम को सम्प्रदान (चतुर्थी) कारक में रखकर उसका मानत जप कर सकते हैं। शूद्र केवल 'नमो नमः' कह सकता है 'ओम्' आदि नहीं (गौ० १०।६६-६७ एवं याश० १११२१) । आप० ध० सू० (१।४।१३।६) के मत से 'ओम्' यह रहस्यात्मक शब्द स्वर्ग का द्वार है और प्रत्येक वैदिक वचन के जप के पूर्व उसका उच्चारण होना चाहिए। योगसूत्र (११२७) का दृढतापूर्वक कथन है कि ओम् (जिसे प्रणव की संज्ञा मिली है) परमात्मा की भावना का द्योतक है और इसके जप तथा मन में इसके अर्थ को रखने से ध्यान बंध जाता है।'
३. न वेदबलमाश्रित्य पापकर्मरतिर्भवेत् । अज्ञानाच्च प्रमादाय बहते कर्म नेतरम् ॥ वसिष्ठ (२७१४) एवं अंगिरा (१०२)।
४. ओङ्कारः स्वर्गद्वारं तस्माद् ब्रह्माध्येष्यमाण एतदादि प्रतिपयत। आप००० (१४॥१३॥६); तस्य बाचकः प्रणवः। तज्जपस्तदर्थभावनम् । योगसूत्र (१३२७-२८); वाचस्पति की व्याख्या है --प्रणवस्य जपः प्रणवाभिधेयस्य चेश्वरस्य भावनम् । तदस्य योगिनः प्रणवं जपतः प्रणवायं च भावयतश्चितमेका सम्पखते।
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