Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati
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भारतीय संस्कृतिक विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
यदि पुरुषको प्रकृतिके परिवर्तनमें कारण माना जाय तो पुरुषमें भी परिवर्तन मानना ही पड़ेगा ।
सांख्य दर्शन में सुखदुखादि समस्त क्रियाएँ मानसिक हैं, सब प्रकृतिको देन हैं । पुरुषका पर प्रतिबिम्ब पड़ता है और इस प्रतिबिम्बके कारण पुरुष यह समझने लगता है कि सुखदुखादि मेरे भाव हैं । वह अपने मूल स्वरूपको भूलकर सुखदुःखादिको अपना समझने लगता है । अतएव परिणामी और अकर्त्ता पुरुषगें इस प्रकारका परिणाम सम्भव नहीं है। जड़ प्रकृति चैतन्य परिणामोंका कर्त्ता नहीं हो सकती और न सुखदुःखादिका अनुभव बिना क्रियाके हो सकता है । सुखदुःखादि क्रियारूप ही है । ऐसी अवस्थामें पुरुषको अकर्त्ता और निष्क्रिय मानना किसी प्रकार ठोक नहीं है । पुरुषको साक्षी' मात्र मानना युक्ति विरुद्ध है ।
भतृत्व शक्ति : विवेचन
आत्मा फलोंका स्वयं भोक्ता । यह असद्भूत व्यवहारनयकी अपेक्षा पुद्गल कर्मफलोंका भोक्ता है । अन्तरंग में साता - असाताका उदय होनेपर बाहर में उपलब्ध होनेवाले सुखदुःखादि साधनोंका उपभोग करती है । अशुद्ध निश्चयन की अपेक्षा चेतनाके विकार रागादि भावकी भोक्ता है और शुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षा शुद्ध चैतन्य भावोंकी भोक्ता है ।
वस्तुतः आत्माके ही कर्ता और भोक्ता होनेके कारण संसारकी कोई भी परोक्ष शक्ति जीवके लिये किसी भी प्रकारका कार्य नहीं करती है । जीव स्वयं अपने भावोंका कर्त्ता - भोक्ता है । जीवको किसी दूसरी शक्तिके द्वारा कर्मफलकी प्राप्ति नहीं होती । आत्मा स्वयं ही अपने किये गये भावोंके अनुसार कर्मोंको बाँधती है और स्वयं ही अपने प्रयाससे कर्मोंसे मुक्त होती है । बन्धन और मुक्तिमें पर का किंचित् भी कर्तृत्व नहीं है । स्वभाव से रूपमें चलनेवाले इस जगत्का न कोई नियन्ता है और न कोई स्रष्टा है । किसी भी देवी देवताकी कृपासे इष्टानिष्ट फल प्राप्त नहीं हो सकता। सबसे बड़ा आत्मदेव है । इससे शक्तिशाली अन्य कोई भी नहीं है । हानि-लाभ, सुख-दुःख अपने ही हाथमें है, अन्य किसीके हाथ में नहीं । जब आत्मा अपनी कर्तृत्व और भोक्तृत्व शक्तिका अनुभव करने लगता है, अपने स्वरूपको पहचान लेता है, उस समय जगत्के देवी-देवता सभी आत्माके चरणोंमें नतमस्तक हो जाते हैं । अतएव यह जीव स्वतन्त्र है और स्वयं ही कर्त्ता और भोक्ता है ।
१. तस्माच्च विपर्यासात्सिद्ध साक्षित्वमस्य पुरुषस्य । कैवल्यं
माध्यस्थ्यं द्रष्टृत्व कर्तृभावश्च ॥ सांख्य कारिका, श्लोक १९