Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङमयका अवदान
कुणाल हमारे कुलका कलंक है, अतः इसकी आँखें निकाल ली जायें । फलतः कुणालको आज्ञा प्राप्त कर स्वयं अन्धा होना पड़ा।
__जैन ग्रन्थोंमें बताया है कि विद्याध्ययनके समय ही अवन्तिमें कुणालको विमाता तिष्यरक्षिताके षड्यन्त्रके कारण अन्धा होना पड़ा था। कुणालने अपनी बुद्धिमत्तासे अपने पुत्र सम्प्रतिको अशोकसे राज्य दिलवा दिया था। सम्प्रतिके सम्बन्धमें जैन लेखकोंमें दो मत प्रचलित हैं। प्रथम मत बृहत्कल्पचूणि कल्पकिरणावली, परिशिष्टपर्व आदिका है। इस मतके अनुसार कुणालने सम्प्रतिकी उत्पत्तिके अनन्तर अशोकसे उसके लिये राज्य मांगा; अशोकने उसी समय राज्य दे दिया। दूसरा मत निशीथ चूर्णिका है, इसके अनुसार सम्प्रतिको कुमार मुक्तिमें उज्जयिनीका राज्य मिला था।
इतिहासकारोंने जो कुणाकका राज्यकाल ८वर्ष बताया है तथा उसे अवन्ति या तक्षशिलाका शासक लिखा है; जैन और बौद्ध मान्यताके अनुसार भी इस कथनको एक प्रकारसे ठीक कहा जा सकता है। संभवतः अन्धा होनेके पूर्व कुणाल अवन्तिका युवराज था, अतः यहाँका शासन भार कुणालके हाथोंमें रहा हो । अन्धा होने के पश्चात् उसने अपने पिता अशोक से इसीलिये अपने पुत्रके लिये राज्यको याचना की थी कि अन्धा होनेके कारण उसके हाथसे उज्जयिनीका राज्यभार उसके पुत्रको मिल जाय । क्योंकि महाराज अशोकने कुणालके अन्धा होनेके अनन्तर अपने दूसरे राजकुमारको अवन्तिका शासक बना दिया था तथा कुणालकी गुजर-बसरके लिये एक-दो गाँव दे दिये थे । इस प्रकार की विचित्र असमंजस कारक परिस्थिति में कुणालको या उसके पुत्र सम्प्रतिको अवन्तिका शासन मिलना जरा कठिन था; इसीलिये बुद्धिमान कुणालने तरकीब सोचकर राजाको वचनबद्धकर अधिकार किया ।
मेरे इस कथनका अभिप्राय यह है कि अशोकके पश्चात् कुणालने शासन नहीं किया; किन्तु उसकी जीवित अवस्थामें कुछ दिनों तक युवराजपदका भार कुणालके ऊपर रहा था। अवन्तिमें अमात्योंकी परिषद्की सहायतासे कुणालने राज्य कार्य किया था । अशोककी मृत्युके पूर्व सम्प्रति युवराज पदपर आसीन था। तथा अवशेष चार करोड़ सुवर्णदान, जिसे अशोक खजाने से कुर्कुटाराम पहुँचाना चाहता था, सम्प्रतिने रुकवा दिया था। युवराजकालमें सम्प्रति अवन्तिका शासक भी था। आर्य सुहस्तिसे सम्प्रतिने युवराजकालमें ही जैनधर्मकी दीक्षा ली थी, इसी कारण जैन लेखकोंने उसे दीक्षाके समय युवराज या अवन्ति शासक लिखा है। दिव्यावदान और अवदान कल्पलतावृत्ति नामक बौद्ध ग्रन्थों में स्पष्ट बताया गया है कि अशोककी मृत्युके .
१. जैन-सिद्धान्त-भास्कर भाग १६ किरण २ पृ० ११५ २. कि काहिसि अंधओ रज्जेचं कुणालो भणति-मम पुत्रोत्थि संपती नाम कुमारो, दिन्नं
रज्ज-बृहत्कल्पचूणि २२ + + तस्य सुतः कुणालस्तन्नन्दनास्त्रिखण्डभोक्ता सम्प्रति नामा भूपतिः अभूत्, स च
जातमात्र एव पितामहदत्तराज्यः। -कल्पकिरणावली १६५ ३. उज्जेणीसे कुमारभोत्ती दिण्णा-निशीथचूर्णि ४. परितप्पिता उज्जेणी अण्णस्स दिण्णा-कल्पचूर्णि