Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati
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भारतीय संस्कृति के विकास में जैन वाङ्मयका अवदानं
(३) विवाहित स्त्रीको भी घूमने-फिरनेकी पूर्ण स्वतंत्रता थी । विवाहिता स्त्रियाँ अपने पतियोंके साथ तो वन विहार करती ही थीं पर कभी कभी एकाकी भी वन विहारके लिए जाती थीं ।
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(४) पति से ही स्त्रीकी शोभा नहीं थी, बल्कि पति भी स्त्रीसे शोभित होता था । आदिपुराण चतुर्थ पर्व १३२ वें श्लोक में बताया गया है कि मनोहररानी अपने पति अतिबलके लिए हास्यरूपी पुष्पसे शोभायमान लता के समान प्रिय थी और जिनवाणीके समान हित चाहने वाली ओर यशको बढ़ाने वाली थी । पर्व ६, श्लोक ९५ में बताया गया हैस तया कल्पवल्ल्येव सुरागोऽलंकृतो नृपः ।
(५) गृहस्थ जीवन में पति-पत्नियोंमें कलह भी होता था स्त्रियाँ प्रायः रूठ जाया करती थीं । पतियों द्वारा स्त्रियोंके मनाये जानेका वर्णन करता हुआ कवि कहता है
प्रणयकोपविजिह्नमुखीर्वधूः अनुनयन्ति सदाऽत्र नभश्चराः ॥ इह मृणालनियोजितबन्धर्नरिह वतंससरोरुहताडनैः । इह मुखासवसेचनकैः प्रियान् विमुखयन्ति रते कुपिताः स्त्रियः ॥ ( पर्व १९, श्लोक ९४-९५ )
(६) स्त्रियाँ व्रत उपवास अत्यधिक करती थीं। आरम्भ में ही बड़े-बड़े व्रतों को किया करती थीं । पंचकल्याणकव्रत, सोलहकारण व्रत, जिनेन्द्र-गुण-सम्पत्तिव्रत के करनेकी अधिक प्रथा थी | आदिपुराणके छठवें पर्व में बताया गया है कि मनस्विनी स्वयंप्रभाने अनेक व्रतोपवास किये । उस समय नारियाँ आर्यिका और क्षुल्लिकाकी पदवी धारण करती थीं तथा वे सदा इसके लिए उत्सुक रहती थीं कि कब उन्हें आत्मकल्याण करनेका अवसर प्राप्त हो । ४६ वें पर्व के ७६ वें श्लोक में बताया गया है कि प्रियदत्ताने विपुलमति नामके चारण ऋद्धिधारी मुनिको नवधा भक्तिपूर्वक आहार दिया और मुनिसे पूछा कि प्रभो मेरे तत्रका समय समीप है या नहीं। इससे स्पष्ट है कि उस समय सांसारिक भोगोंकी अपेक्षा आत्मकल्याणको स्त्रियाँ अधिक महत्ता देती थीं और परिवार में धर्मात्मा विदुषी महिलाओंका अधिक सम्मान होता था । (७) दुराचारिणी स्त्रियोंको समाजमें निंद्य दृष्टिसे देखा जाता था तथा पापके फलस्वरूप उनका समाजसे निष्कासन भी होता था । ४७ वें पर्व में बताया गया है कि समुद्रदत्तकी स्त्री सर्वदयिताको उसके ज्येष्ठ सागरदत्तने भ्रमवश घरसे निकाल दिया था और उसके पुत्रको कुल का कलंक समझ भृत्य द्वारा अन्यत्र भिजवा दिया था ।
(८) स्त्रियोंका अपमान समाजमें महान् अपराध माना जाता था । सभी स्त्रियोंको सम्मानकी दृष्टिसे देखते थे । कोई भी उनका अपमान नहीं कर सकता था। पति अपने बाहुबलसे स्त्रीके भरण पोषणके साथ उसका संरक्षण भी करता था । तेतालीसवें पर्वके ९९ वें श्लोक में बताया गया है :
न सहन्ते ननु स्त्रीणां तिर्यञ्चोऽपि पराभवम् ।
१. स्नेचरी जनसंचारसंक्रान्तपदयावकः । रक्ताम्बुजोपहारश्रीर्यत्र नित्यं वितन्यते ॥
- पर्व ४ श्लो० ८६