Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati
View full book text
________________
जैम तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
१८१ एक सीधमें रहना अतुलबल, आत्मप्रतिष्ठान, और जगत्की मोह मायासे पृथक्त्वका सूचक तथा पद्मासन प्रतिमामें बाई हथेलीके ऊपर दाई हथेलोका खुला रहना स्वार्थ त्याग, चरम सन्तोष, आदान-प्रदानकी भावनासे रहित, जिससे राग द्वेषकी उत्पत्ति होती है; और खड्गासन मूत्तिमें आजान बाहुओंका लटकना कृतकृत्य, संसारके गोरख-धन्धेसे रहित, मानसिक और शारीरिक संघर्षको छिन्न करने में संलग्न, प्रकाण्ड तथा विस्तृत विश्वमें अकेला ही अपने सुख, दुःखका भोक्ता यह जीव है कि भावनाके संदेशका सूचक; प्रशान्त मुखमुद्रा, सर्वत्र शान्ति और प्रेमके साम्राज्यकी व्यञ्जक एवं आभरण और वस्त्र हीनता अपनी कमजोरियों तथा यथार्थताको प्रकट करनेकी भावना की सूचक हैं । इस प्रकार जैन मूत्तियाँ अपनी अभिव्यञ्जना द्वारा संसार मरुभूमिमें मृगतृष्णासे संतप्त मानवको परम शान्ति और कर्तव्य परायणताका संकेत करती हैं, उनका यह संकेत निर्जीव नहीं, वरन् सजीव है ।
शायद कलाप्रेमी सहृदयोंके चित्तमें यह प्रश्न उठे कि जैन मूत्तियोंमें शारीरस्थान विद्या (एनाटोमी) के लिये कोई स्थान नहीं, किन्तु जैनमूति शिल्पमें देहका खाका, उसका गठन, नाप-जोख आदि बातें मूत्तिकी आकृति, मुखमुद्रा और उसकी विविध गतिभंगियोंके निरीक्षणसे ज्ञात हो जाती हैं । जैनकलामें आन्तरिक भावनाओं द्वारा विशेष-विशेष शारीरिक भंगिमाएं प्रकट की गयी हैं। जैनमूत्तिकी प्राणछन्दकी रूपरेखापरसे ही शरीरको भावसमता, खाका, सूक्ष्मत्व आदि बातें लक्ष्य की जा सकती हैं । प्राणछन्दके द्वारा ही शरीरके यथावत् दर्शन किये जा सकते हैं। अतः जन तीर्थङ्करोंकी तपःप्रधान मूर्तियाँ तपोबलके साथ आराधकके समक्ष शान्ति, अभय, और कलाके दिव्य आदर्शको उपस्थित करती हैं। इस प्रकार जैन मूर्तिकलामें युग-युगको संस्कृति और आध्यात्मिकताके भावोंका सन्निवेश है, जिन बातोंको कलाकार कहना चाहता था, जैनमूर्तियाँ उन बातोंको अभिव्यक्त करनेमें पूर्ण समर्थ हैं ।
जैन चित्रकला-विश्वकी ललित कलाओंमें चित्रकलाका अद्वितीय स्थान है। इस कला द्वारा मानव जातिके व्यापक और.गम्भीर भावोंको जनताके समक्ष रखा जा सकता है । जैनोंने प्राचीन कालमें ही हृदयगत मूल्यवान् भावोंके प्रवाहका व्यक्तीकरण इस कला द्वारा किया है। जैन शिल्पियोंने मूक भाषामें अपने मस्तिष्कके विचारों और हृदयकी गूढ़तम भावनाओंके प्रवाहको रंग और कूचीके सहारे कागजके माध्यम द्वारा प्रवाहित किया है । यद्यपि कला मर्मज्ञोंने जैन चित्रकलाको पृथक् स्थान नहीं दिया है, उसे विशेष-विशेष भौगोलिक परिस्थितियोंके अनुसार भारतीय कलाके अन्तर्गत ही परिगणित किया है, फिर भी इतना तो सभीने स्वीकार किया है कि जैन चित्रों को अभिव्यञ्जना अपने तौरको पृथक् है। चित्रोंका सम्बन्ध धर्मके साथ जोड़ देनेपर भी जैन चित्र हृत्तंत्रीके तारोंको झंकृत करनेमें समर्थ हैं ।
श्रीनानालाल चिमनलाल मेहताने जैन चित्रकलाके सम्बन्धमें लिखा है-"परन्तु इतना अवश्य है कि जैन चित्रोंमें एक प्रकारको निर्मलता, स्फूर्ति और गतिवेग है, जिससे डा० आनन्दकुमार स्वामी जैसे रसिक विद्वान् मुग्ध हो जाते हैं। इन चित्रोंकी परम्परा अजंता, एलौरा, बाघ, सित्तन्नवासलके भित्ति चित्रों की है। समकालीन सभ्यताके अध्ययनके लिए इन चित्रोंसे बहुत कुछ ज्ञानवृद्धि होती है। खासकर पोशाक, सामान्य उपयोगमें आती हुई १. देखें भारतीय चित्रकला पृ० ३३