Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati
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३४ . भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान रचना की प्रतिज्ञा की है। इस प्रतिज्ञामें यह भी बताया गया है कि चारण मुनियों ने जैसा देखा और अपने दिव्य ज्ञान द्वारा जैसा शुभाशुभोंका वर्णन किया है, मैं भी वैसा ही वर्णन करता हूँ । इतना निश्चय है कि गर्गाचार्यसे इनका सम्बन्ध अवश्य था । वाराही संहितामें गर्ग नामके दो व्यक्तियोंके उल्लेख है। वहाँ एकको वृद्ध गर्ग और दूसरेको गर्ग कहा है। विषय और रचना शैलीसे दूसरे गर्ग हो जैन मुनि प्रतीत होते हैं, इन्हींसे ऋषिपुत्रका सम्बन्ध गुरु या पिताका रहा है। आचाय ऋषिपुत्रका ज्योतिष-ज्ञान
आचार्य ऋषिपुत्र फलित ज्योतिषके विद्वान् थे, गणित सम्बन्धी इनकी एक भी रचनाका पता अब तक नहीं लगा है तथा इनको उपलब्ध रचनाओंसे भी इनकी गणित विषयक विद्वत्ता का पता नहीं चलता है। इन्होंने त्रिस्कन्धात्मक ज्योतिषसे केवल संहिता विषयके ऊपर ही रचनाएँ की है। प्रारम्भिक रचनाएं होनेके कारण विषयको गम्भीरता नहीं है, पर तो भी सूत्ररूपमें संहिताके सभी विषयोंका प्रतिपादन किया है । शकुनशास्त्र के भी ये निर्माता हैं, इन्होंने अपने निमित्तशास्त्रमें पृथ्वी पर दिखाई देनेवाले, आकाशमें दृष्टिगोचर होनेवाले और विभिन्न प्रकारके शब्द सुनाई पड़ने वाले, इन तीन प्रकारके निमित्तों द्वारा फलाफलका अच्छा निरूपण किया है । ऋषिपुत्रने आकाश सम्बन्धी निमित्तोंको बतलाते हुए लिखा है कि "सूरोदय अच्छमणे चंदमसरिक्खामगहचरियं । तं पच्छियं णिमित्तं सव्यं आएसिंह कुणहं ।।" अर्थात् सूर्योदयके पहले और सूर्यास्तके पीछे चन्द्रमा, नक्षत्र और ताराबोंके मार्गको देखकर फल कहना चाहिये । वर्षोत्पात, देवोत्पात, राजोत्पात, उल्कोत्पात, गन्धर्वोत्पात इत्यादि अनेक उत्पातोंके शुभाशुभत्वका बड़ा सुन्दर वर्णन किया है । आचार्य ऋषिपुत्रके निमित्तशास्त्रमें सबसे बड़ा महत्त्वपूर्ण विषय 'मेघयोग' का है। इस प्रकरणमें नक्षत्रानुसार वर्षाके फलका अच्छा विवेचन किया है । आचार्य लिखते हैं कि प्रथम वृष्टि कृतिका नक्षत्रमें हो तो अनाजकी हानि, रोहिणी में हो तो देशकी हानि, मृगशिरामें हो तो सुभिक्ष, आर्द्रामें हो तो खण्डवृष्टि, पुनर्वसुमें हो तो एक माह वृष्टि, पुष्यमें हो तो श्रेष्ठ वर्षा, आश्लेषामें हो तो अन्न हानि, मघा और पूर्वाफाल्गुनी में हो तो सुभिक्ष, उत्तराफाल्गुनी और हस्तमें हो तो सुभिक्ष और सर्वत्र प्रसन्नता, विशाखा और अनुराधामें हो तो अत्यधिक वर्षा, ज्येष्ठामें हो तो वर्षाको कमी, मूलमें हो तो पर्याप्त वर्षा, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा और श्रवणमें हो तो अच्छी वर्षा, धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद और उत्तराभाद्रपदमें हो तो अधिक वृष्टि और सुभिक्ष एवं रेवती, अश्विनी और भरणीमें हो तो पर्याप्त वृष्टि के साथ अन्न भाव श्रेष्ठ रहता है और प्रजा सब तरहसे सुख प्राप्त करती है । वाराही-संहिताकी भट्टोत्पली टीकाके उद्धरणमें सप्तमस्थ गुरु, शुक्रके फलका प्रतिपादन ऋषिपुत्रका बड़ा महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि वहाँ गुरु, शुक्रकी उभय दृष्टिसे फल बतलाया गया है । इससे उनके असाधारण ज्योतिष ज्ञानका अनुमान सहजमें ही किया जा सकता है। इन्हें सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहणका भी ज्ञान था, पर इन्होंने सिर्फ उनका फल ही बतलाया है। इस प्रकार ज्योतिष शास्त्रको समुज्ज्वल समृद्ध करनेमें आचार्य ऋषिपुत्रका महत्त्वपूर्ण योगदान है।
१. जो चारणेण दिट्ठा अणं दो सायसहम्मणाणेण ।
जो पाहुणेण भणिया तं खलु तिविहेण वोच्चामि ॥