Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
जानके अधिकारके भीतर हो। (२) असंज्ञात-चेष्टा द्वारा जहाँ ज्ञानका अधिकार विस्तृत किया जाय । (३) अन्तर्जात-ज्ञानके अधिकारके बहिर्भूत होते हुए भी जिस इच्छाका मनमें किसी न किसी दिन उठना संभव हो । (४) अज्ञात या निर्जात-जो इच्छा कभी न उठ सके, जिसका अस्तित्व केवल अनुमान गम्य हो । इच्छाके इस दार्शनिक विश्लेषणसे पता लगता है कि स्वप्नमें नामा प्रकारकी अज्ञात-इच्छाएँ अपना जाल बिछाती रहती हैं। इसलिये स्वप्नगत अवदमित्त-इच्छाएँ सीधे-सादे रूपमें चरितार्थ न होकर ज्ञानके पथमें बाधक होती हैं। तथा अज्ञात रुद्ध इच्छा ही अनेक प्रकारसे मनके प्रहरीको धोखा देकर विकृत अवस्थामें प्रकाशित होती है और अवदमित इच्छाओंके आत्मप्रकाशमें उनकी रुद्ध इच्छाएं बाधा पहुंचाती हैजैसे मरनेकी इच्छाको जीनेकी इच्छा पनपने नहीं देती। जिस समय भी मरनेकी इच्छा हमारे मनमें प्रकट होनेकी चेष्टा करती है, उसी समय जीनेकी इच्छा प्रकट होकर बाधा पहुंचाती है । फलस्वरूप मरनेकी इच्छा सीधे-सादे रूपमें मनमें न उठकर तरह-तरहसे प्रकाशित होती है। संकटपूर्ण परिस्थितिमें उतरकर बहादुरी दिखानेकी इच्छा केवल मृत्युकी इच्छाका ही रूपान्तर है। इस इच्छाके इस परिवर्तित रूपको देखकर नहीं समझ सकते हैं कि वह यथार्थमें मरनेकी इच्छा है। यदि इस परिस्थिति में जीनेकी इच्छाको प्रहरी मान लेते हैं तो यह स्पष्ट हो जाता है कि इस प्रहरोके कारण ही मृत्यु इच्छा अपने असली रूपमें प्रकाशित नहीं हो सकी। मृत्यु इच्छा विपत्ति के कार्यों में वाहवाही लेनेकी इच्छासे छद्मवेश धारण कर लेती है और इस प्रकार प्रहरीको सहजमें धता बता सकती है। अतः उपर्युक्त विश्लेषणसे यह स्पष्ट है कि स्वप्नमें अज्ञात-इच्छाको धोखा देकर नाना रूपकों और उपरूपकोंमें हमारे सामने आती है।
स्वप्नके अर्थक विकृत होने का प्रधान कारण अवदमित इच्छा-जो इच्छा अज्ञात होकर स्वप्न में प्रकाशित होनेकी चेष्टा करती है, प्रहरीकी-मनके जो-जो भाव रुद्धइच्छाके प्रकाशित होने में बाधा पहुंचाते हैं उनके समष्टि रूप प्रहरीको धोखा देने के लिये छद्मवेशमें प्रकाशित होकर शान्त नहीं होती है, बल्कि पाखण्डरूप धारण करके अपनेको प्रहरीकी नजरोंसे बचानेकी चेष्टा करती है। इस प्रकार नाना इच्छाओंका एक जाल बिछ जाता है, इससे स्वप्नका यथार्थ अर्थ विकृत हो जाता है। दार्शन परिणति (Visuabmagery) अभिक्रान्ति (Displacement), संक्षेपन (Condensation) और नाटकीय परिणति (Dramtization) ये चार अर्थ विकृतिके आकार है । मनका प्रहरी जितना सजग होगा, स्वप्न भी उतने ही विकृत आकारमें प्रकाशित होगा । प्रहरीके कार्यमें ढिलाई होनेपर स्वप्नकी मूल इच्छा अविकृत अवस्थामें प्रकाशित होती है। मनका प्रहरी जागृतावस्थामें सजग रहता है और निद्वितावस्थामें शिथिल । इसी कारण निद्रितावस्थामें मनकी अपूर्ण इच्छाएं स्वप्न द्वारा काल्पनिक तृप्तिका साधन बनती हैं ।
इसी प्रकार विश्वविश्रुत मनोवैज्ञानिक' फ्रायडने स्वप्नके कारणोंकी खोज करते हुए १. (a) देखें-The interpretation of dreams. (b) Delusion & dream.
Studies in Dreams by Mary Arnaldforster P. 8 to 30. Dreams Scientific & practical Interpretations by G. H, Miler P, 8 to 24,