Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati
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ज्योतिष एवं गणित
४३१ संस्कारोंके कारण हमारे शरीरके सौर-मण्डलका संचालन होता है। दूसरे शब्दोंमें यह कहा जा सकता है कि व्यक्तिका जैसा शुभाशुभ अदृष्ट होता है, वैसे ही सुख-दुःख उसे मिलते हैं । अतः स्वप्न भी उसके अदृष्टकी प्रेरणासे ही आते हैं । अदृष्टकी इसी प्रेरणाके कारण नाना प्रतीक स्वप्नमें दृष्टिगोचर होते हैं। कभी-कभी यह भी दिखलाई पड़ता है कि जैसा हम स्वप्नमें देखते हैं, वैसा ही फल शीघ्र घटता है । इसका कारण यह है कि ऐसे व्यक्तिकी आत्मा स्वप्न देखनेके समय अधिक विशुद्धावस्थामें थी, इसलिये आत्माका प्रतिबिम्ब स्थिर रूपमें रहा । जब प्रतिबिम्ब चंचल रहता है उसी समय अधिक संकल्प-विकल्प उत्पन्न होते हैं जिससे प्रतीकोंकी एक श्रेणी बन जाती है और स्वप्न भी प्रतीकोंके रूपमें दिखलाई पड़ने लगते हैं । भारतीय ज्योतिष शास्त्रमें जो प्रातःकालके स्वप्नोंको सत्य फलदायक बताया गया है. उसका कारण भी यही है कि प्रातःकालके समय सौर-मण्डलकी गति स्वभावतः स्थिर हो जाती है, अर्थात् रातके १० या ११ बजेसे लेकर रात्रिके २-३ बजे तक शरीरस्थ सौरमंडलकी गतिमें एकरूपता नहीं रहती है, कभी वह तीव्र और कभी मन्द होती है जिससे प्रतिबिम्बमें चंचलता रहती है फलतः स्वप्न भी निरर्थक हो जाते हैं । तात्पर्य यह है कि पाश्चात्य स्वप्न सिद्धान्तका सम्बन्ध केवल शरीरसे और पौर्वात्यका सम्बन्ध आत्मासे है । इसी कारण वेदान्तमें जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय ये चार जीवात्माको अवस्थाएं मानी गई है । जैन दर्शनके अनुसार दर्शनावरणी कर्मके क्षयोपशमकी होनाधिकता आती है । स्वप्नोत्पत्तिका कारण पूर्वोपार्जित अदृष्ट ही है, जिन स्वप्नोंमें शारीरिक विकार प्रधान कारण होते हैं वे निरर्थक और जिनमें अदृष्ट कारण होता है वे सार्थक होते हैं ।