Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati
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ज्योतिष एवं गणित
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जन्मान्तराजित संस्कारोंके कारण ही आते हैं, इन स्वप्नोंमें इच्छाओंकी अनेकरूपता कारण वहीं रहती है, किन्तु अदृष्ट या संस्कार ही कारण होते हैं । पाश्चात्योंने शरीरको एक यन्त्रके समान माना है जिसमें किसी भौतिक घटना या क्रियाका उत्तेजन पाकर प्रतिक्रिया होती है। स्वप्न भी शानधाराकी क्रिया-प्रतिक्रियाके कारण आते हैं, इनका सम्बन्ध संस्कारोंसे कुछ भी नहीं है, जैसे जड़ मशीन चलते-चलते कभी मन्द और कभी तेज चलने लगती है, ठीक इसी प्रकार बाह्य कारणोंसे प्रभावित होकर शरीरकी क्रियाएँ कभी मन्द और कभी तेज होती हैं । क्रियाओंकी मन्दावस्थाका नाम स्वप्नावस्था एवं वेमावस्थाका नाम सचेतनावस्था - जागृतावस्था है । फ्रायडके मतानुसार मनुष्यका संचालन करनेवाली शक्तियाँ विशुद्ध प्रवृत्ति मूलक हैं, जो उसे सर्वदा पूर्णरूप से बाह्याभ्यन्तर प्रभावित करती रहती हैं। मनुष्य के व्यक्तित्वका अधिकांश भाग अचेतन मनके रूपमें है, जो प्रवृत्तियोंका भाण्डार है । इन प्रवृत्तियों में मुख्य रूपसे कामकी और गौणरूपसे विभिन्न प्रकारकी वासनाएं संघटित रहती हैं। इन महासमुद्रीय वासनाओं में कुछ तो तृप्त हो जाती है और कुछ अतृप्त रहती है, अतः वे ही अतृप्तवासनाएँ विभिन्न रूप धारण कर स्वप्नके रूपमें बाती हैं ।
इस सिद्धान्त के अनुसार बुद्धि भी मनुष्यकी प्रवृत्तिका एक प्रतीक है, इसके द्वारा व्यक्ति अपनी कामनाओंको सफल करता रहता है। चेतन मन नाना प्रकारकी कामनाओंको उत्पन्न करता है, वे कामनाएँ बुद्धि द्वारा चरितार्थ की जाती है । किन्तु बुद्धि कैसी ही प्रचण्ड और अभिनव क्यों न हो, एक निमित्त मात्र है, अतः समस्त वासनाएं बुद्धि द्वारा औचित्य सिद्ध नहीं कर पाती हैं, क्योंकि जब प्रवृत्ति ही बुद्धिकी प्रेरणात्मिका शक्ति है, तब उसकी वह दासी सारी वासनाओंको चरितार्थ करनेमें असमर्थ रहती है । अतः स्वप्न द्वारा वे समस्त अतृप्त वासनाएं पूर्ण की जाती है। पौर्वात्य सिद्धान्त में वासनाओंकी तृप्तिके लिये केवल स्वप्न नहीं आते, किन्तु आत्माका प्रतिबिम्ब शरीरस्थ चन्द्रमण्डलमें पड़नेसे स्वप्नावस्था में अधिक चंचलता रहती है, इसीसे आत्मिक क्रियाएँ अधिक तेजीसे होती हैं, फलत: स्वप्न अनेक रूपमें परिणत हो जाते हैं । भारतीय ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शरीरमें एक सौर मण्डल रहता है । तथा जिस प्रकार आकाशस्य सौर मण्डल भ्रमण करता है, ठीक उसी प्रकार प्रत्येक व्यक्तिका सौर मण्डल भ्रमण करता है । व्यक्ति जब पैदा होता है, तब उसके उत्पति कालकी लग्न ही उसके शरीरके सौर मण्डलकी लग्न होती है, इसीलिये ज्योतिष शास्त्र सम्बन्धी फलादेश दोतीन वर्षकी आयु तक ठीक नहीं घटता है, क्योंकि तब तक बच्चे के शरीरका सौर मण्डल स्वतन्त्र रूपसे भ्रमण नहीं कर सकता है । इसका प्रधान कारण यह है कि इस समय तक बच्चेका स्वतन्त्र रूपसे विकास नहीं होता है; उसका रहन-सहन दूसरोंके ऊपर आश्रित रहता है अतः चार वर्षकी अवस्थाके बाद ही ठीक फल घटता है । स्वप्न के फलमें विशेषता इसी सौर-मण्डलके कारण होती है । जैन ग्रन्थ ज्ञानप्रदीपिकाक़े स्वप्नकाण्ड में लग्नानुसार स्वप्नोंका फल बताया गया है, इसका प्रधान कारण मेरी समझसे यही है कि शरीरस्थ सौर मण्डलकी आकाशगामी सौर-मण्डलके साथ तुलना कर क्रान्ति वृत्तीय लग्वोंकी समानता स्थिर की गई है । ज्ञानप्रदीपिकाका स्वप्न सम्बन्धी प्रकार योग शास्त्रके शरीरस्थ सौर मण्डलीय प्रकारसे मिलता-जुलता है । आचार्यने इसीलिये "चतुर्थभवनात् स्वप्नं ब्रूयात् ग्रह निरीक्षकः " इस पद्य में चतुर्थ भवनको प्रधानता दी है। सारांश यह है कि जहाँ पाश्चात्य स्वप्न सिद्धान्तमें केवल