Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati

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Page 395
________________ ३५० भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान ऐतिहासिक विद्वानोंने गणितसारका रचनाकाल नवीं शताब्दीका मध्य भाग माना है। अतएव श्रीधराचार्यका समय ईस्वी सन् ८५० के पहले मानना पड़ेगा। . इन गणितज्ञ आचार्यका उल्लेख भास्कराचार्य', केशव, दिवाकर' दैवज्ञ आदिने आदर सहित किया है । ___ श्रीधराचार्य द्वारा विरचित ज्योतिर्ज्ञानविधिमें एक प्रकरण प्रतिष्ठा मुहूर्तका है, इस प्रकरणके समस्त श्लोक वसुनंदी प्रतिष्ठापाठमें ज्योंके त्यों उद्धृत हैं। ज्योतिर्ज्ञानविधि ज्योतिषका स्वतंत्र ग्रंथ है, अतः प्रतिष्ठापाठके मुहूर्त विषयक श्लोक इसमेंसे लिये गये हैं । जैन साहित्यमें वसुनंदी नामके तीन विद्वान् हुए है-एक का सयय वि० सं० ५३६, दूसरेका वि० सं० ७०४ और तीसरेका वि० सं० १३९५ है। मेरा अनुमान है कि अंतिम वसुनंदी ही उक्त प्रतिष्ठापाठके रचयिता हैं । अतः यह मानना पड़ेगा कि वि० सं० १३९५ में श्रीधराचार्यके प्रतिष्ठा मुहूर्त श्लोकोंका संकलन वसुनंदीने किया होगा। श्रीधराचार्य के समय निर्धारणके लिये एक और सबल प्रमाण ज्योतिर्ज्ञानविधिका है । इस ग्रन्थमें मासध्रुवा साधनकी प्रक्रिया करनेमें वर्तमान शकान्दमें से एक स्थानपर ७२० और प्रकारान्तरसे पुनः इस क्रियाके साधनमें ७२१ घटाये जानेका कथन है। ज्योतिष शास्त्रमें यह नियम है कि अहर्गण साधनके लिये प्रत्येक गणक अपने गत शकाब्दके वर्षोंको या वर्तमान १, यत् पुनः श्रीधराचार्य ब्रह्मगुप्त्यादिभिर्व्यासवर्गाद्दशगुणात्पदं परिधिः स्थूलोऽप्यङ्गी कृतः स सुखार्थम् । नहि ने जानन्तीति-सिद्धान्त शि० गो० भुवनकोष श्लो० ५२ टीका । २. श्रेष्ठं रिष्टहती दशाक्तम् इहौजः श्रीधरादयोदितम् । कष्टेष्टनबलान्तरात् क्व च कृतं तद्युक्ति शून्यं त्वसत् ॥ -केशवीय पद्धति श्लो० ३२ ३. य तु श्रीपतिनेष्टकष्ट गुणित बलयोरन्तराद्वलमित्युक्त तत्र यतस्तथा लति रिष्टकरस्यभङ्गकरस्येत्यादि । -केशवीय पद्धति श्लो० ३२ की टीका । ४. पञ्चांगातिथिसंशुद्धिर्लग्नं षड्वर्गगोचरम् । शुभाशुभनिमित्तं च लग्नशुद्धिस्तु पंचधा ।। वारास्तिथिभयोगाश्च मरणं पचधा तिथि । त्यत्त्वा कुजं रविं सौरि वाराः सर्वेऽपि शोभनाः ॥ सिद्धामृतादियोगेषु कुर्यात्तेष्वपि मंगलम् । त्यक्त्वा रिक्ताममावस्यां सर्वास्तु तिथयः शुभाः ॥ रिक्तास्वपि समाश्रित्य योगं कार्याणि कारयेत् । सिद्धयोगमपि प्राप्य सिनिवालीं विवर्जयेत् ॥ पुनर्वसूत्तरापुष्यहस्तश्रवणरेवतीरोहिण्याश्विमृगक्षेषु प्रतिष्ठा कारयेत्सदा ॥ चित्रास्वातिमघामूले भरण्यां तदभावतः नक्षत्रेष्ववशेषेषु प्रतिष्ठां नैव कारयेत् ।। . -वसुनन्दी प्रतिष्ठापाठ परिच्छेद १ श्लोक १-६ पञ्चाङ्गतिथिसंशुद्धिलग्नं षड्वर्गगोचरम् । शुभाशुभनिमित्तं च लग्नशुद्धिस्तु पञ्चधा । वारास्तिथिभयोगाश्च करणं पंचधा तिथि। त्यत्त्वा कुजं रविं सौरि वारा सर्वेऽपि शोभनाः ।। सिद्धामृतादियोगेषु कुर्यात्तेष्वपि मंगलम् । त्यक्त्वा रिक्ताममावा सर्वास्तु तिथयः शुभाः ।। रिक्तास्वपि समाश्रित्य योगं कार्याणि कारयेत् । सिद्धियोगमपि प्राप्य शनिवारे विवर्जयेत् ॥ -ज्योतिनिविषि पु० २६ ।

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