Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati
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भारतीय संस्कृतिके विकास में जैन वाङ्मयका अवदान
अर्थात् बीती हुई सम्वत्सर संख्याको १६ से गुणा कर ६० जोड़ देनेपर जो संख्या बाबे, उसमें ४०९ और युक्त कर देनेपर शक संवत् आ जाता है। तृतीय तिथ्याधिकारमें मध्यम रवि, चन्द्र और स्पष्ट रवि, चन्द्रके साधनके पश्चात् अन्तरांशोंपर से तिथि साधनकी प्रक्रिया बताई गई है। इसमें मास -शेष ध्रुवापरसे भी तिथिका साघन किया है, यह प्रक्रिया ज्योतिषशास्त्र की दृष्टिसे महत्त्वपूर्ण है । चतुर्थ परिच्छेदमें संक्रान्तिके साधन की क्रियाका सुन्दर वर्णन है । प्रारम्भका श्लोक निम्न प्रकार है।
४०० नोनवगुण करणाब्दं वर्षोनं सुकलोद्धृतं १७ वारम् । नच गुणवृतशेषं घटिका श्रीधरयुक्त तेन संक्रान्त्या ॥ यहाँ श्रीधर शब्द द्वयार्थक है; ग्रन्थकर्त्ताने अपने नामका निर्देश कर श्रीको घर शब्दसे पृथक् कर २९ जोड़े जानेवाली संख्याको भी बता दिया है। दिन-रातका प्रमाण निकालनेकी निम्न विधि बतलाई गई है :
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दिया है तथा
इस प्रकरण में
मकरादि-कर्कटादि ज्ञात्वा राश्यंशभुक्तिरिह खगुणा' । तत्र १२० नरातप युक्तं " नीचहृतं दिवसरात्रिप्रमाणम् ॥ अर्थात् -- मकरसे लेकर मिथुन तक अभीष्ट सूर्यके राश्यादि ज्ञात करे । इस राश्यादिके अंश बनाकर अंशोंको दो से गुणाकर, गुणनफलमें १६२० जोड़े और योगफलमें ६० का भाग देने से पट्यात्मक दिन प्रमाण आता है । कर्कसे लेकर धनु तक अभीष्ट सूर्यके राज्यांशोंके अंश बनाकर दो से गुणा करनेपर जो आवे, उसमें १६२० जोड़कर वयात्मक रात्रि प्रमाण आता है ।
योगफलमें ६० का भाग देनेसे
छठवें परिच्छेद में ग्रहों के युद्धका वर्णन किया गया है, प्रारम्भमें ग्रहयुद्धकी परिभाषा देते हुए कहा है ।
राश्यंशकलाः सर्वाः यदा भवेयुः समा द्वयोग्र हयोः । योगस्तयोस्तदा जायते च तद्युद्धमिति वाच्यम् ।।
अर्थात् जब दो ग्रहोंके राशि, अंश, कला समान हों उस समय उन दोनोंका योग युद्ध संज्ञक होता हैं । इस युद्ध के प्रधानतः पुरतः दृष्ट युद्ध और परतः दृष्ट युद्ध ये दो भेद बतलाये हैं तथा इनका विस्तार सहित वर्णन भी किया है। इसके पश्चात् सात परिच्छेद ग्रहणाधिकार नाम का है इसमें विक्षेप, लम्बन, नति आदिके सामान्य गणितके साथ ग्रहणकी दिशा, ग्रास, स्पर्श, मोक्षकी मध्यम घटिकाओंका आनयन किया है ।
आठव प्रकरण लग्न साधन का है, इसमें शंकुच्छाया, पदच्छाया आदि नाना प्रकारों परसे लग्न साधन किया है। ग्रहोंके संस्कार भी इस प्रकरणमें बताये गये हैं। यह प्रकरण काफी बड़ा है, इसमें गणितके कुछ करण सूत्र भी दिये हैं । इसके अनन्तर लग्न शुद्धि प्रकरण है जिसमें प्रतिष्ठा मुहूर्त्त, यमघण्टक, कुलिक, प्रहरार्धपात्, क्रकच, उत्पात, मृत्यु, काण, सिद्ध, अमृत आदि योगोंके लक्षण दिये गये हैं । यद्यपि यह प्रकरण छोटा है, पर आवश्यक मूहूर्त सभी आ गये हैं । दसवें प्रकरणमें नक्षत्रोंके वृक्ष, देवता, एवं शुभाशुभत्वका प्रतिपादन किया है । इससे आगे प्रकरण नहीं मिलते हैं ।
श्रीधराचार्य के ग्रन्थोंको देखनेसे इनकी विद्वत्ताका अनुमान सहजमें ही किया जा सकता है । बाह्य और अन्तः साक्ष्यके आधारसे यह निश्चित है कि यह जनमतावलम्बी दक्षिण भारतके निवासी थे ।