Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati

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Page 411
________________ ३६६ म न ३. (3T) धवला टीकामें उक्त सिद्धान्त' के प्रयोग पाये जाते हैं । वर्ग - संवर्ग के उपर्युक्त (१, २, ३) सकता है । भारतीय संस्कृति के विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान = मन अ (न) = न न न न न (न) पुनः संवर्गित करने पर - न न { } { न (न न गणित सिद्धान्तोंको निम्न प्रकार अवगत किया जा = यह संख्या 'न' का तृतीयवार वर्ग संवर्ग है = ३५ । आधुनिक बीज गणित में इसे घातांक सिद्धांत कहा गया है। जैन लेखकोंकी यह अपने समयकी मौलिक उद्भावना है । गति - सिद्धान्त गति गणित (Applied Mathematics) के अन्तर्गत समाविष्ठ है । तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थ राजवात्तिकमें गतिका नियम वर्णित है, यह नियम पूर्णतः न्यूटन के प्रथम गति नियमसे और अंशतः उसके तृतीय नियमसे समता रखता है । आचार्य पूज्यपादने लिखा है - 'कर्मरूपी शक्तिसे संसारी प्राणी गतिमान होता है, उस शक्ति के समाप्त हो जाने पर भी उत्पन्नगति के कारण ( मदावेशपूर्वक) प्राणी गतिमान रहता है, जब तक वह संस्कार नष्ट नहीं हो जाता २ । आशय यह है कि कर्मके निमित्तसे यह संसारी प्राणी संसारमें परिभ्रमण करता है, उस प्रयोगसे जो संस्कार बनता है, उसके वशीभूत हुआ यह जीव कर्मके निमित्तके छूट जानेपर भी गमन करता है । इस नियमकी तुलना न्यूटनके निम्नलिखित नियमसे की जा सकती है 'प्रत्येक वस्तु अपनी स्थिर या सीधी रेखामें गतिमान अवस्थाको तब तक बनाए रखेगी, जब तक कोई बाहरी लगाया हुआ बल उसे अपनी इस हालत को बदलने के लिए प्रेरित न करे । "3 न्यूटनके समान ही पूज्यवाद और अकलंकदेव के गतिनियमको दो भागों में विभक्त किया जा सकता है १. घवलाटीका जिल्द ३, पृ० २५३ । २. उपरतेऽपि परस्मिन्पूर्वप्रयोगादा संस्कारक्षयाद् भ्रमति एवं भवस्थेन । त्यनाऽपवर्ग प्राप्तये बहुशोयत्प्रणिधानं तदभावेऽपि तदवेशपूर्वकं युक्तस्य गयनयवसीयते । - सर्वार्थसिद्धि १०।७ की वृत्ति । ३. माध्यमिक भौतिक विज्ञान-प्रकाशक- माडर्न बुक एजेंसी प्राइवेट लिमिटेड, कलकत्ता सन् १९६४ । [नवाँ संस्करण ] पृ० ८३ | ४. द्रव्यस्य बाध्यान्तर सन्निवाने सति देशान्तर प्राप्ति हेतु: परिणामो गतिरित्युच्यते । तत्वार्थराजबात्तिक, ज्ञानपीठ संस्करण ५।१७ द० ४६० ।

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