Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati

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Page 429
________________ भारतीय संस्कृतिक विकासमें न वाङ्मयका अवदान स्वराशि (२) इसकी अन्द राशि १, इष्ट राथि १६, इसकी अछेद राशि ४, अभीष्ट बन्द राशि :-इन बच्छेदोंसे राशि निकालती है। ४:१-४, ८.४-२, १६४१६ - २५६ राशि आठ अच्छदों को है। बच्छेदके गणितसे निम्नलिखित सिद्धान्त और भी महत्वपूर्ण निकलते है $२ x'=', " x =++मगुण्य राशिके अच्छेदोंको गुणाकार राशिके गईन्छेदोंमें जोड़ देनेसे गुणनफल-राशिके बच्छेद बा जाते हैं। उपर्युक्त सिद्धान्त इसी वर्षका घोतक है । अंकगणितके अनुसार १६ गुण्यराशि, ६४ गुणाकार राशि और गुणनफलराशि १०२४ है । १६ गुण्यराशि = (२), गुणाकार ६४ - (२), (२) ४ (२)'. (२)°- गुणनफलराशि १०२४ - (२)"। (क)' करक, कन-का--" भाग्य राशिके अच्छेदोंमेंसे भाजकराशिके अच्छेदोंको घटानेसे भागफल राशिके अच्छेद होते है। अंकगणितके अनुसार भाज्यराशि २५६, भाजक ४ और भागफल ६४ है । २५६ भाज्यराशि = (२), भाषक (२), (२) : (२) = (२)', भागफलराशि ६४ = (२)' । T (कम)न.कम.न इस सिद्धान्तको जैनाचार्योने अढच्छेदके गणितमें लिखा है कि विरलनराशि-विभाजितराशि ( Distributed number ) को देयराशि-परिवर्तितराशि (Substituted number) के अच्छेदोंके साथ गुणा करनेसे जो राशि आती है वह उत्पन्न राशि (rosulting number) के अच्छेदोंके बराबर होती है। व्यासःविभाजितराशि, परिवर्तितराशि'६, उत्पन्नराशि ६५५३६ है। परिवर्तितराशि १६ - (२)', (२)-(२), उत्पन्नराशि ६५५३६ - (२) । क)२ (क)' क', विरलन-विभाजितराशिके अछेदोंको देयराशिके बच्छेदोंके अवच्छेदमें जोड़नेसे उत्पन्न राशिकी वर्गशालाका प्रमाण आता है । विभाजितराशि ४, परिवर्तित राशि १६ और उत्पन्नराशि ६५५३६ है। विभाजितराशि ४ = (२)२, परिवर्तितराशि १६, (२२)३ = (२), ६५५३६ उत्पन्नराशि = (४२) । __उत्तराध्ययन सूत्रमें द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ षष्ठम और द्वादशम वर्गात्मक शक्तियों (Powers) के लिए वर्ग, धन, वर्ग-वर्ग, धन-वर्ग, और धन-वर्ग-वर्ग शब्दोंका प्रयोग मिलता $ गुणयाररच्छेदा गुणिज्जमाणस्स अवच्छेदजुदा । लम्सवच्छेदा अहियस्स छेदणा गस्थि ।।-त्रिलोकसार गाथा नं० १०५ • मज्जस्सलच्छेदा हाररच्छेदणाहिं परिहीणा । अडच्छेदसलाणा लवस्स हवंति सम्बत्य ॥-त्रिलोकसार गापा नं. १०६ T विरलिज्जमाणारासि दिग्णस्सच्छिदीहिं संगुणिदे। गच्छेदा होंति दु सम्बत्युप्पण्ण रासिस्स ॥-त्रिलोकसार गाषा नं० १०७ । विरलिदरासिच्छेदा विष्णईच्छेदछेदसं मिलदा । बग्गसलागपमाणं होंति समुप्पण्ण राखि ।।-त्रिलोकसार गापा नं० १०८

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