Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati

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Page 426
________________ ज्योतिष एवं गणित ३८१ (महिमोदय), गणितसार, गणितसूत्र (महावीराचार्य), लीलावती कन्नड़ (कवि राजकुंवर), लीलावती कन्नड़ (आचार्य नेमिचन्द्र) एवं गणितसार (श्रीधर)आदि ग्रन्थ प्रधान हैं। अभी हालमें ही श्रीधराचार्यका जो गणितसार उपलब्ध हुआ है, वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। पहले मुझे सन्देह था कि कहीं यह अजैन ग्रन्थ तो नहीं है, पर इधर जो प्रमाण उपलब्ध हुए हैं उनके आधार से यह सन्देह बहुत कुछ दूर हो गया है । एक सबसे प्रबल प्रमाण यह उपलब्ध हुआ कि महावीराचार्यके गणितसार में "धनं धनर्णयोर्वर्गो मूले स्वर्णे तयोः क्रमात् ! ऋणं स्वरूपतोऽवर्गो यतस्तस्तस्मान्न तत्पदम्'-यह श्लोक श्रीधराचार्यके गणितसारका है । इससे यह जैनाचार्य महावीराचार्यसे पूर्ववर्ती प्रतीत होते हैं । श्रीपतिके 'गणिततिलक' पर सिंहतिलक सूरिने एक वृत्ति लिखी है । इस वृत्तिमें श्रीधरके गणितसारके अनेक उद्धरण दिये गये हैं । इस वृत्ति की लेखन-शैली जैन गणितके अनुसार है; क्योंकि सूरिजीने जैन गणितोंके उद्धरणोंको अपनी वृत्तिमें दूध-पानीकी तरह मिला दिया है । जो हो, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि जैनोंमें श्रीधरके गणितसारको पठन-पाठन प्रणाली अवश्य रही थी। श्रीधराचार्यकी ज्योतिानविधिको देखनेसे भी यही प्रतीत होता है कि इन दोनों ग्रन्थोंके कर्ता एक ही है । इस गणितशास्त्रके पाटीगणित, त्रिंशतिका और गणितसार भी नाम बताए गये हैं। इसमें अभिन्न गुणन, भागहार, वर्ग, वर्गमूल, घन, घनमूल, भिन्न-समच्छेद, भागजाति, प्रभागजाति, भागानुबन्ध, भागमातृजाति, पैराशिक, पंचराशिक, सप्तराशिक, नवराशिक , भाण्ड-प्रतिभाण्ड, मिश्रव्यवहार, भाव्यकव्यवहार, एकपत्रीकरण , सुवर्णगणित, प्रक्षेपकगणित, समक्रयविक्रयगणित , श्रेणीव्यवहार एवं छायाव्यवहारके गणित उदाहरण सहित बतलाये गये हैं । सुधाकर द्विवेदी जैसे प्रकाण्ड गणिताने इनको प्रशंसा करते हुए लिखा है "भास्करेणाऽस्याने के प्रकारास्तस्करवदपहृताः । अहो अस्य सुप्रसिद्धस्य भास्करादितोऽपि प्राचीनस्य विदुषोऽन्यकृतिदर्शनमन्तरा समये महान् संशयः । प्राचीना एकशास्त्रमा कवेदिनो नासन् ते च बहुश्रुता बहुविषयवेत्तार आसन्न न संशयः।" इससे स्पस्ट है कि यह गणितज्ञ भास्कराचार्यके पूर्ववर्ती प्रकाण्ड विद्वान् थे । स्वतन्त्र रचनाओंके अतिरिक्त जैनाचार्योने अनेक अजैन ग्रन्थों पर वृत्तियाँ भी लिखी है । सिंहतिलक सूरिने 'लीलावतीके' ऊपर भी एक बड़ी वृत्ति लिखी है । इनकी एकाध स्वतन्त्र रचना गणित सम्बन्धी भी होनी चाहिये। लौकिक जैन गणितको अंकगणित, रेखागणित, और बीजगणित इन तीन भागोंमें विभक्त कर विचार करनेकी चेष्टाकी जायेगी। जैन अंकगणित-इसमें प्रधानतया अंक सम्बन्धी जोड़, बाकी, गुणा, भाग, वर्ग, वर्गमूल, धन और घनमूल, इन आठ परिकों का समावेश होता है । भारतीय गणितमें उक्त बाठ परिकर्मों का प्रणयन जैनाचार्यों का अति प्राचीन है। आर्यभट्ट, ब्रह्मगुप्त और भास्कर मादि जैनेतर गणितज्ञोंने भी उपर्युक्त परिकर्माष्टकों के सम्बन्ध विचार-विनिमय किया है, किन्तु जैनाचार्योके परिकर्मों में अनेक विशेषाताएं हैं । गणितसंग्रह की अंग्रेजी भूमिकामें डेविड यूपीन स्मिथ (David Eugine Smith) लिखते है-"The shadaw Problems, Primitive cases of trignoretry and gnomonits, suggess a similarity

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