Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati
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ज्योतिष एवं गणित
इन पद्योंमें गर्गशिष्य और देवल दो व्यक्तियोंके नामोंका उल्लेख किया गया है। यहाँ गर्गशिष्यसे आचार्यको कौन अभिप्रेत है ? यह नहीं कहा जा सकता, पर द्वितीय व्यक्ति देवलकी रचनाओंको देखनेसे प्रतीत होता है कि यह वराहमिहिरसे पूर्ववर्ती है। क्योंकि अद्भुतसागरके प्रारम्भमें ज्योतिषके निर्माता आचार्योंको नामावली कालक्रमके हिसाबसे दी गई प्रतीत होती है । इसमें वृद्धगर्ग, गर्ग, पाराशर, वशिष्ठ बृहस्पति, सूर्य, बादरायण, पीलुकार्य, नृपपुत्र, देवल, काश्यप, नारद, यवन, वराहमिहिर, वसन्तराज आदि आचार्योंके नाम दिये गये हैं । इससे ध्वनित होता है कि आचार्य ऋषिपुत्र देवलके पश्चात् और वराहमिहिर के पूर्ववर्ती हैं । दोनोंकी रचना पद्धतिसे भी यह भेद प्रकट होता है। क्योंकि विषय प्रतिपादन की जितनी गम्भीरता वराहमिहिरमें पाई जाती है, उतनी उनके पूर्ववर्ती आचार्यों में नहीं।
यदि Catalogus Catalagorum के अनुसार आचार्य ऋषिपुत्रके पिता जैनाचार्य गर्ग मान लिये जायँ तब तो उनका यह समय निर्विवाद सिद्ध हो जाता है; क्योंकि गर्गाचार्य वराहमिहिरसे बहुत पूर्व हुए हैं । वंश परिचय
यद्यपि प्रामाणिक सूत्रोंसे आचार्य ऋषिपुत्रके वंशके सम्बन्धमें कुछ भी नहीं ज्ञात है. पर यत्र-तत्र उपलब्ध इनके उद्धरण तथा इनकी समय सम्बन्धी ज्योतिष परम्पराके आधारपर वंशके सम्बन्धमें कुछ विचार किया जायगा। जैन-अजैन सभी सम्प्रदायोंमें ५वीं ६वीं शतीमें संहिता विषयक रचनाएँ हुई; ये सभी रचनाएँ काश्यप, वत्स और वशिष्ठ गोत्रीय ब्राह्मणोंके द्वारा हुई हैं । ऋषिपुत्रका संहिताकारोंमें अग्रणीय स्थान हैं, इसी कारण इनके उत्तरवर्ती संहिताकारोंने इनके वचनोंको उद्धृत किया है, अतएव ऋषिपुत्रको उपर्युक्त तीन गोत्रों से किसी एक गोत्रका ब्राह्मण मानना चाहिये । ऋषिपुत्र वास्तव में गर्गके शिष्य थे, क्योंकि अद्भतसागरमें इनका उल्लेख गर्गशिष्यके नामसे आया है । हो सकता है कि यह आचार्य गर्गके पुत्र और शिष्य दोनों ही हों।
गर्गाचार्यको पाशाकेवलीमें ज्योतिषका धुरन्धर विद्वान्, निमित्तज्ञ कहा गया है,' साथ ही इन्हें जैनमुनि भी बताया है। अतएव ऋषिपुत्रको इनके आशीर्वादसे उत्पन्न, विद्याशिष्य मानना अधिक युक्ति संगत जंचता है। इनका ऋषिपुत्र नाम भी इस बातका साक्षी है कि यह किसी मुनिके आशीर्वादसे उत्पन्न हुए थे। क्योंकि प्राचीनकालमें यह परिपाटी थी कि जो सन्तान किसी देव या देवीकी उपासनासे या किसी मुनि-ऋषिके आशीर्वाद से उत्पन्न होती थी. उसका नाम प्रायः देवपुत्र, ऋषिपुत्र या ऐसा ही कुछ रखा जाता था। ऋषिपुत्रके उपलब्ध निमित्तशास्त्रमें प्रशस्ति कुछ भी नहीं है, परन्तु ग्रन्थारम्भमें अपना नाम लिखकर ग्रन्थ
१. जैन आसीज्जगद्वंद्यो गर्गनामा महामुनिः, तेन स्वयं निर्मितं यं सत्पाशात्रकेवली ? एतज्ज्ञानं महाज्ञानं जैनर्षिभिरुदाहृतम्, प्रकाश्य शुद्धशीलाय कुलीनाय महात्मना ।।
-पाशाकेवली, पृ०१
इति गर्गनामा महर्षिविरचितः पाश केवलीसम्पूर्णः