Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati
View full book text
________________
ज्योतिष एवं गणित
२७३
पूर्वमध्यकालमें गणित और फलित दोनों ही प्रकारके ज्योतिषका यथेष्ट विकास हुआ। इसमें ऋषिपुत्र, महावीराचार्य, चन्द्रसेन, श्रीधर प्रभति ज्योतिर्विदों ने अपनी अमूल्य रचनाओंके द्वारा साहित्य की श्री वृद्धिकी।
भद्रबाहुके नामपर अर्हच्चूडामणिसार नामक एक प्रश्नशास्त्र सम्बन्धी ७४ प्राकृत गाथाओंमें रचना उपलब्ध है । यह रचना चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहुकी है, इसमें तो सन्देह है । हमें ऐसा लगता है कि यह भद्रबाहु वराहमिहिरके भाई थे, अतः संभव है कि इस कृतिके लेखक यह द्वितीय भद्रबाहु ही होंगें । आरम्भमें वर्णोकी संज्ञाएँ बतलायी गयी है । अ इ ए ओ, ये चार स्वरं तथा क च ट त प य श ग ज ड द ब ल स य चौदह व्यंजन आलिंगित संज्ञक है। इनका सुभग, उत्तर और सकंट नाम भी है । आ ई ऐ औ, ये चार स्वर तथा ख छ ठ थ फ ए ष ध म ढ, ध भ व ह ये चौदह व्यंजन दग्ध संज्ञक है । इनका विकट, संकट, अधर और अशुभ नाम भी है । प्रश्नमें सभी आलिंगित अक्षर हों, तो प्रश्नकर्ताको कार्य सिद्धि होती है । प्रश्नाक्षरोंके दग्ध होनेपर भी कार्यसिद्धिका विनाश होता है। उत्तर संज्ञक व्यंजनोंमें संयुक्त होनेसे उत्तरतम और उत्तराधर तथा अधर स्वरोंसे संयुक्त होनेपर उत्तर और अधर संज्ञक होते हैं। अधर संज्ञक स्वर दग्धसंज्ञक व्यंजनोंमें संयुक्त होनेपर अधरापरतर संज्ञक होते हैं । दग्धसंज्ञक स्वर दग्धसंज्ञक व्यंजनोंसे मिलनेसे दग्धतम संज्ञक होते है। इन संज्ञाओंके पश्चात् फलाफल निकाला गया है । जय-पराजय, लाभालाभ, जीवन-मरण आदिका विवेचन भी किया गया है। इस छोटीसी कृतिमें बहुत कुछ निद्ध कर दिया गया है। इस कृतिकी भाषा महाराष्ट्री प्राकृत है । इसमें मध्यवर्ती क ग और त के स्थानपर य श्रुति पाया गयी है।
करलक्खण-यह सामुद्रिक शास्त्रका छोटासा ग्रन्थ है। इसमें रेखाओंका महत्त्व, स्त्री और पुरुषके हाथोंके विभिन्न लक्षण, अंगुलियोंके बीचके अन्तराल, पर्वोके फल, मणिबन्ध, विद्यारेखा, कुल, धन, उर्ध्व, सम्मान, समृद्धि, आयु, धर्म, व्रत आदि रेखाओंका वर्णन किया है । भाई, बहन, सन्तान आदिको द्योतक रेखाओंके वर्णनके उपरान्त अंगुष्ठके अधोभागमें रहने वाले यवका विभिन्न परिस्थितियोंमें प्रतिपादन किया गया है । यवका यह प्रकरण नौ गाथाओं में पाया जाता है । इस ग्रन्थका उद्देश्य ग्रन्थकारने स्वयं ही स्पष्ट कर दिया है ।
इयं करलक्खणमेयं समासओ दंसिअं जइजणस्स।
पुवायरिएहिं णरं परिक्खउणं वयं दिज्जा ॥६१।। यतियोंके लिए संक्षेपमें करलक्षणोंका वर्णन किया गया है । इन लक्षणों द्वारा व्रत ग्रहण करनेवालेकी परीक्षा कर लेनी चाहिए । जब शिष्यमें पूरी योग्यता हो, व्रतोंका निर्वाह कर सके तथा व्रती जीवनको प्रभावक बना सके, तभी उसे व्रतोंकी दीक्षा देनी चाहिए। अतः स्पष्ट है कि इस ग्रंथका उद्देश्य जनकल्याणके साथ नवागत शिष्यकी परीक्षा करना ही है । इसका प्रचार भी साधुओंमें रहा होगा।
ऋषिपुत्रका नाम भी प्रथम श्रेणीके ज्योतिर्विदों में परिगणित है । इन्हें गर्गका पुत्र भी कहा गया है । गर्ग मुनि ज्योतिषके धुरन्धर विद्वान् थे, इसमें कोई सन्देह नहीं । इनके सम्बन्धमें लिखा मिलता है। १. महचूड़ामणिसार, गाथा १०-८ ।
३५