Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati
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ज्योतिष एवं गणित
२९३ प्राप्त करता है। इसका प्रभाव सभी प्राणियोंपर पड़ता है। इस प्रकार ६८वें अध्यायके ११७ श्लोकोंमें अङ्गविद्याके विशेष सिद्धान्तोंका वर्णन आया है। इस ग्रन्थके ७०वें अध्यायमें स्त्रियोंके लक्षणोंपर प्रकाश डाला गया है । इसी प्रकार 'नारद संहिता' में अङ्गों और रेखाओंकी विशेषताओंका वर्णन किया है।
नवम और दशम शताब्दीमें लिखित 'अंग दीपक', 'अंग प्रदीपिका' और 'अंग शास्त्र' नामक स्वतन्त्र रचनाएँ प्राप्त होती हैं । इन रचनाओंमें शरीरके छत्तीस अंगों पांगोंका विस्तारपूर्वक विवेचन किया है। करतलका वर्णन और फलादेश १६ दृष्टि बिन्दुओंसे किया गया है। इस वर्णनसे ऐसा ज्ञात होता है कि अंग विद्याके विषयोंका उत्तरोत्तर विस्तार होता जा रहा था और अन्तरिक्ष सम्बन्धी निमित्त भी इस विद्यामें समाविष्ट हो गये थे। अंग प्रदीपिकामें अंगोंका विवेचन रेखागणित के सूत्रों द्वारा किया गया है। फिर शिर और ललाटकी रचनाको त्रिकोणकी आकृति मानकर लम्ब, आधार और भुजाओंके गणितसे अंगोंके मान निकाले गये हैं और इन्हीं मानोंके आधारपर भविष्य फलका प्रतिपादन किया है । मुखाकृतिके अतिरिक्त नेत्र, ललाट, कर्ण, भौंहके क्षेत्र फलोंका भी आनयन किया है और इस प्रक्रियाको रेखागणितका आधार देकर बीजगणितकी प्रतीकशैलीमें भविष्य फलोंका निरूपण किया है । हस्तमुद्राओंके वर्णन भी आये हैं।
११ वीं शताब्दीसे १५ वीं शताब्दी तक लिखे गये ग्रन्थों में अंगविद्याकी विषय वस्तुमे कोई विस्तार या विकास प्राप्त नहीं होता है । इन शताब्दियोंमें इस विद्याके सामुद्रिक शास्त्रका रूप ग्रहण कर लिया प्रतीत होता है । सामुद्रिक शास्त्रका तात्पर्य समुद्र ऋषि द्वारा प्रणीत शरीर चिह्नों से है। इन शताब्दियोंकी रचनाओंमें 'हस्त-संजीवन', 'सामुद्रिक शास्त्र', 'मुख प्रदीपिका', 'हस्त प्रदोपिका' आदि प्रधान है। इन ग्रन्थों में हस्तपाद और ललाटकी रेखाओंके साथ अंगोंकी आकृतियोंके विवेचन भी अंकित हैं। प्रभावशाली व्यक्तित्वके हेतु क्रियाशील, कृश, दुर्बल एवं सुगठित शरीरावयवोंका विवेचन किया है । तिल, मस्सा, व्यंजन आदि चिह्नोंका निरूपण भी किया गया है । यद्यपि सैद्धान्तिक दृष्टिसे इन शताब्दियोंमें रचित अंग-विद्या सम्बन्धी ग्रन्थों में मौलिक सिद्धान्तोंका विवेचन नहीं आया है, तो भी युगानुकूल व्याख्याओंकी दृष्टिसे इन ग्रन्थोंमें विषय-वस्तुका पर्याप्त स्पष्टीकरण किया गया है । यदि विषयानुसार विश्लेषण किया जाए तो इन ग्रन्थोंमें प्रतिपादित विषयोंको संक्षेपमें निम्नलिखित वर्गों में विभाजित कर सकते हैं
१. अवयवाकृति । १. अवयवोंके वर्ण, स्पर्श एवं मान । ३. अंग-उपांग और आंगोंपांगके संस्थान विशेष । ४. हस्त-पाद और ललाटकी रेखाएँ । ५. व्यंजन, तिल, मस्सा, चट्टा आदिका शुभाशुभत्व । ६. स्वर निमित्त-स्वर विज्ञान एवं शब्द और ध्वनिका शुभाशुभत्व ।
७. लक्षण निमित्त-स्वस्तिक, कलश, शंख, चक्र आदि चिह्नों द्वारा शुभाशुभत्व । अधषवाकृति विचार
हाथ-पांव, सलाट,मस्तक और वक्षस्थलकी आकृतिका अध्ययन कर शुभाशुभ फलका