Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati
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३२६ भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान दक्षिण, सप्तम पश्चिम और चतुर्थाभाव उत्तर दिशामें माने गये हैं। इसी कारण इन स्थानोंमें ग्रहोंका रहना दिग्बल कहलाया है ।
नतोन्नत बल, पक्षबल, अहोरात्र विभाग-बल, वर्षेशादिबल इन चारों बलोंका योगकर देनेपर कालबल आता है।
फलित की दृष्टिसे रात्रिमें जन्म होनेपर चन्द्र, शनि और मंगल • यथा दिनमें जन्म होनेपर सूर्य, बुध और शुक्र कालबली होते हैं। मतान्तरसे बुधको सर्वदा कालबली माना गया है।
शनि, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, चन्द्र और सूर्यको उत्तरोत्तर नैसर्गिक बली माना जाता है।
मकरसे मिथुन पर्यन्त किसी राशिमें रहनेसे सूर्य और चन्द्रमा तथा मंगल, बुध, गुरु, शुक्र और शनि चन्द्रमाके साथ रहनेसे चेष्टाबली होते हैं । शुभ ग्रहोंसे दुष्ट ग्रह दृग्बली होते हैं।
बलवान् ग्रह अपने स्वभाव के अनुसार जिस भावमें रहता है, उस भावका फल देता है । राशि स्वभाव और ग्रह स्वभावके अध्ययनके आधारपर फलादेशका निर्णय करना चाहिए । ग्रहों का स्वभाव
___ ग्रहोंके स्वभावके सम्बन्धमें यह स्मरणीय है कि गुरु और शुक्र दोनों शुभ ग्रह है, पर शुक्रसे सांसारिक और व्यवहारिक सुखोंका और बृहस्पतिसे पारलौकिक एवं आध्यात्मिक सुखों का विचार किया जाता है। शुक्रके प्रभावसे मनुष्य स्वार्थी और बृहस्पतिके प्रभावसे पारमार्थी होता है।
शनि और मंगल ये दोनों पापग्रह हैं, पर दोनोंमें अन्तर यही है कि शनि यद्यपि क्रूर ग्रह है, लेकिन उसका अन्तिम परिणाम सुखद होता है । शनि दुर्भाग्य और यन्त्रणाके फेरमें डालकर मनुष्यको शुद्ध बना देता है। परन्तु मंगल उत्तेजना देनेवाला, उमंग और तृष्णासे परिपूर्ण कर देने के कारण सर्वदा दुःखदायक होता है । ग्रहोंमें सूर्य और चन्द्रमा राजा, बुध युवराज, मंगल सेनापति, शुक्र-गुरु मन्त्री एवं शनि भृत्य हैं । सबल ग्रह जातकको पूर्ण सुख देते हैं । जातक तत्वकी जानकारीके लिए ग्रहस्वरूप, ग्रहबल, ग्रहोंकी दृष्टि, उनके मूलत्रिकोण, स्वक्षेत्र आदिका विश्लेषण आवश्यक है । ग्रहोंकी अवस्थाएँ
जातक तत्वके अन्तर्गत महादशा विचार आता है; पर इसके पूर्व ग्रहोंकी अवस्थाओं का विवेचन करना आवश्यक है । जातक शास्त्रमें ग्रहोंकी अवस्था तीन प्रकारकी मानी गयी है-(१) दोप्तादि, (२) बाल्यादि और (३) शयनादि।
ग्रह अपने उच्चमें दीप्त, स्वक्षेत्रमें स्वस्थ, मित्रकी राशिमें हर्षित, शुभग्रहके वर्गमें शान्त, षड्बल या षोडस वर्गमें चन्दनादि भेद गत ग्रह शक्त, रविसे युक्त ग्रह लुप्त (अस्त), अपनी नीच राशिमें दीन, पाप ग्रह तथा शत्रू ग्रहकी राशिमें पीड़ित होते हैं। जो ग्रह दीप्त, स्वस्थ, हर्षित, शान्त और शक्त अवस्थामें हों, वे उत्तम माने जाते हैं ।