Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati
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३३४ भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान बतलाई है वह कलात्मक गति है। इसी प्रकार अजैन ज्योतिषशास्त्रमें भी सूर्यादि ग्रहोंकी गति दो प्रकारको बतलाई है। एक योजनात्मक दूसरी कलात्मक । ज्योतिष-शास्त्रके मतसे सूर्य क्रान्ति-वृत्त में चलता है और चन्द्रमा विमण्डलमें । सूर्य के घूमनेके मार्गका नाम अहोरात्र वृत्त है। प्रत्येक दिनका अहोरात्र वृत्त अलग-अलग होता है। इस प्रकारसे एक अयनमें १८३ और कुछ अधिक अर्थात् १८४ अहोरात्र वृत्त होते हैं। अजैन ज्योतिष-शास्त्र में भी १८४ वीथी; घटित होती हैं। केवल उन्होंने उसका नाम वृत्त रक्खा और आचार्यने वीथी परन्तु वीथी और वृत्तका अर्थ परिभाषाके अनुसार एक ही है। यहाँ पर वृत्त शब्दसे दीर्घवृत्ताकार लिया जाता है। या यों कहिये कि ढोलकके आकारका मार्ग वृत्त शब्दसे लिया जाता है। सब ग्रहोंकी कक्षा दीर्घवृत्ताकारकी ली जाती है। आचार्यकी यही योजनात्मक गति अजैन ज्योतिष-ग्रन्थों में पायी जाती है। जैसे आचार्यने गगनखण्ड-रूप गति बतला कर सूर्य-नक्षत्र और चन्द्र-नक्षत्रकी सिद्धिकी है उसी प्रकारसे आधुनिक ज्योतिषके नियमोंसे भी सूर्य-नक्षत्र और चन्द्र-नक्षत्रका मान आता है । क्योंकि सिद्धान्त-शिरोमणिके गणिताध्यायमें नक्षत्रानयन प्रकरणमें आचार्यकी व्यवस्था ही दृष्टिगत होती है
स्थूलं कृतं भानयनं यदेतज्ज्योतिर्विदां संव्यहारहेतोः ।
सूक्ष्म प्रवक्ष्येऽथ मुनि-प्रणीतं विवाहयात्रादिफल-प्रसिद्ध्ये ॥ अध्यर्ध-भोगानि (१९८५/५२) षडत्र तज्ज्ञाः प्रोचुर्विशाखादिति भध्रुवाणि । षडभोगानि च (३९५।१७) भोगिरुद्रवातान्तकेन्द्राधिपवारुणानि ।। शेषाण्यतः पञ्चदशकभोगान्युक्तो भभोगाः शशिमध्यमुक्तिः (७९०।३५)।
इस प्रकारसे चक्र कला मानकर अजैन ज्योतिषमें कलात्मक गतिको ही सूक्ष्म बतलाया है जो आचार्यकी बतलाई गयी गतिसे मिलती है। परिधि-विचार
परिधिके आनयनके लिए भिन्न-भिन्न आचार्योंके भिन्न-भिन्न मत हैं । परन्तु जिसकी वासना युक्ति-युक्त हो वही सर्वमान्य जानना चाहिये । त्रिलोकसारमें जो आचार्यने परिधि लानेका नियम बतलाया है वह सर्वश्रेष्ठ है क्योंकि उसकी वासना ठीक है
नियम-विक्खंभ वग्गदह गुणकरणी वट्टस्स परिरयोहोदि ।
अर्थ-व्यासके वर्गको १० से गुणा कर जो गुणनफल हो उसका वर्गमूल निकलालनेपर परिधिका मान आता है।
वासना-किसी भी वृत्तकी परिधिके अनन्त हिस्से किये जायें और उसी मापके हिसाबसे व्यासके भी टुकड़े किये जायें तो रूप-व्यासमें परिधिका मान /१० करणी आयेगा । यहाँपर शंका हो सकती है कि परिधि तो चापाकार होती है और व्यास सरलाकार । फिर इन दोनोंका अनुपात करके रूप-व्यासमें/१० करणीका ज्ञान कैसे किया ? इसका उत्तर यह है कि किसी भी वृत्तका ९६ वा भाग चापाकारको छोड़कर सरलाकार हो जाता है । इस नियमको सभी गणितज्ञ स्वीकार करते है क्योंकि उपर्युक्त नियम माननेसे हो प्रथम ज्याका साधन किया जाता है, अन्यथा प्रथम ज्याका साधन नहीं हो सकता । क्योंकि प्रथम ज्या प्रथम