Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati
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भारतीय संस्कृतिक विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान है । वेदाङ्ग-ज्योतिषकी मान्यता और आचार्यको मान्यतामें बहुत कम अन्तर है । वेदाङ्गज्मोतिषसे ज्ञात होता है कि श्रविष्ठा (घनिष्ठ) नक्षत्रके आदिसे सूर्यका उत्तरायण और अश्लेषाके अर्धसे दक्षिणायन होता है। यह उत्तर और दक्षिण गतिका समय माघ और श्रावण मासमें होता है। उत्तरायण और दक्षिणायनमें दिनकी बढ़ती और घटती एक प्रस्थ जल के बराबर मानी गई है । उक्त दोनों अयनोंमें दिन-रात्रिके मानमें ६ मुहूर्त्तका भेद पड़ता है। घनिष्ठाके आदिमें वत्सरारम्भ माना गया है। इसके पूर्वकालमें कभी वासंत विषुवद्दिनसे कभी सूर्यके उत्तरायणके अन्तसे वर्षारंभ गिना जाता था। किन्तु आजकल अमावस्यासे लिया जाता है । तैत्तिरीय संहिताके समयमें वर्षारंभ माघी पूर्णासे होता था। परन्तु वेदाङ्ग-ज्योतिषमें अमासे माना गया है । वेदाङ्ग-ज्योतिषके नियमसे पञ्चवर्षीय युग मानकर पञ्चाङ्गको मान्यता भारतवर्षमें बहुत समय तक रही है । शककी पांचवीं शताब्दीमें वराहमिहिरने पञ्चाङ्गकी संस्कृतिमें परिवर्तन कर दिया, किन्तु अयन-प्रवृत्ति तथा सौर वर्ष और चान्द्र वर्षके मानको वेदाङ्ग ज्योतिषके अनुसार ही रक्खा। अपनी वृहत्संहितामें अयन-प्रवृत्ति लिखते हुए वराहमिहिरने लिखा है :
आश्लेषादिक्षिणमुत्तरमयनं रवेर्धनिष्ठार्द्धम् ।
नूनं कदाचिदासीयेनोक्तं पूर्वशास्त्रेषु ॥ इस आर्यासे ज्ञात होता है कि 'पूर्वशास्त्रेषु' से वेदाङ्ग-ज्योतिषका स्मरण किया है । पाराशरतंत्र जो कि भारतीय ज्योतिष-शास्त्रमें बहुत प्राचीन माना जाता है, उसकी मान्यता भी पञ्चवर्षीय युगको लेकर अयन, नक्षत्र, तिथि, पर्व, विषप, दिन तथा चक्रकला मानकर नक्षत्रभुक्ति आदिको मान्यता आचार्यके ही अनुरूप है । पूवलिखित प्राचीन भारतीय ज्योतिष की मान्यतासे मालूम होता है कि आचार्यकी मान्यता प्रायः मिलती-जुलती है केवल उत्तरायण और दक्षिणायनकी नक्षत्र-मान्यतामें ही भेद है। क्योंकि आचार्यने अभिजित् नक्षत्रसे दक्षिणायन और हस्त नक्षत्र से उत्तरायणको माना है । शेष दिन-रात्रिका वृद्धि-ह्रास और नक्षत्र, पर्व, दिन आदि व्यवस्था पाराशर-तंत्र, आर्य-योतिष, अथर्व-ज्योति, वेदाङ्ग-ज्योतिष आदि सुप्राचीन प्रन्थोंसे प्रायः मिलती है। किन्तु गणित-विषयका प्रतिपादन आचार्यका इन ग्रन्थोंसे भी सूक्ष्म एवं महत्त्वपूर्ण है । यदि वेदाङ्ग-ज्योतिषके सूत्रोंके अनुसार त्रिलोकसारमें ४५ गाथा जो गणितज्योतिष शास्त्रसे सम्बन्ध रखती हैं, सुधार हो जाये तो उससे अधिक महत्त्वपूर्ण हो सकता है । क्योंकि वेदाङ्ग-ज्योतिषमें केवल ३६ ही कारिकायें हैं। उनकी ही मूलभित्तिसे आधुनिक ज्योतिषशास्त्र इस रूपमें है । इस प्रकारसे नेमिचन्द्राचार्यका ज्योतिष शास्त्रसे बहुत ही सम्बन्ध और आप गणितज्योतिषके एक अच्छे विद्वान् थे इसमें जरा भी सन्देह नहीं है।