Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati
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ज्योतिष एवं गणित
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जन्मके कर्मोंके संस्कारसे निर्मित होती है। अतः जैसे पूर्वजन्मके कर्म संस्कार होते हैं, वैसीही प्रवृत्तिहो जाती है । फलतः कुछ वस्तुओंके प्रति आकर्षण होता है और कुछके प्रति विकर्षण । इस प्रकृतिको पैतृक या वंश परम्पराके द्वारा आगत नहीं माना जा सकता है । यतः एकही पिताके कई शिशुओंकी भिन्न-भिन्न प्रकृति देखी जाती है। एक जिस कार्यमें रुचि रखता है, दूसरा उससे घृणा करता है और तीसरेकी कुछ और ही रुचि रहती है । अतएव कर्म संस्कारोंको विविधताके कारण प्रत्येक व्यक्तिको शरीराकृति पृथक्-पृथक् होती है, जिससे जीवनकी क्रिया, गति और फल भिन्न-भिन्न रूपोंमें घटित होते हैं।
यह ग्रन्थ साठ अध्यायों में समाप्त हुआ है और इसका परिमाण नौ हजार श्लोक प्रमाण है । गद्य और पद्य दोनोंका ही प्रयोग किया गया है। इस ग्रन्थके नवम अध्यायमें शरीर-सम्बन्धी पचहत्तर अङ्गोंके नाम आये हैं । मस्तक, शिर, सीमन्तक, ललाट, नेत्र, कर्ण, कपोल, ओष्ठ, दन्त, मुख, मसूढ़ा, स्कन्ध, बाहु, मणि-बन्ध, हाथ, पैर, जिह्वा, कटि, जानु, करतल, पादतल, अंगुष्ठ प्रभृति अंगोंके वर्ण, स्पर्श, आकृति, चिह्न-विशेष, परिमाण, आयाम, आयतन आदिका विस्तारपूर्वक विचार किया गया है । निःसन्देह इस ग्रन्थमें अंग विद्याके साथ प्रश्न-शास्त्र सम्बन्धी भी अनेक चर्चाएँ आयो हैं । प्रश्न-प्रक्रियाका सांगोपांग विवेचन लगभग दो हजार पद्योंमें किया गया है ।
प्रस्तुत 'अंगविज्जा' के संस्करण के साथ परिशिष्ट रूपमें एक सटीक संस्कृतका 'अंग विद्या शास्त्र' भी अंकित है। इसमें संस्कृत भाषामें लिखे गये केवल ४४ पद्य हैं और साथमें संस्कृत टीका भी है । टीकाकारने लिखा है___कालोऽन्तरात्मा सर्वदा सर्वदर्शी शुभाशुभैः फलसूचकः सविशेषेण प्राणिनाम परांगेषु स्पर्श-व्यवहारेङ्गितचेष्टादिभिः निमित्तैः फलमभिदर्शयति ।
अर्थात्-अंग-स्पर्श, व्यवहार, चर्या-चेष्टा, अंगाकृति आदिके द्वारा शुभाशुभ फलका प्रतिपादन किया गया है । इस लघुकाय ग्रन्थमें अंगोंकी विभिन्न संज्ञाएं वर्णित हैं, जिनसे फलादेशके अध्ययनमें विशेष सुविधा प्राप्त होती है।
___ इन दोनों ग्रन्थोंके अध्ययनसे यह स्पष्ट है कि इस विषयका विस्तार केवल अंगोंकी आकृति, रेखाएँ आदिके अध्ययन तक ही सीमित नहीं था, किन्तु इसके अन्तर्गत आकाशकी रूपाकृति, उत्पात, उल्का, गन्धर्व, नगर, ताराओंकी विशेष आकृति, भूगर्भशास्त्र आदि भी इस विद्याके वर्ण्य-विषयमें सम्मिलित हो गये थे ।
प्रस्तुत ग्रंथ 'अंगविज्जा' के रचना काल और लेखकका निश्चित रूपसे परिज्ञान प्राप्त करना कठिन है। पर भाषा शैली, वर्ण्य विषय एवं विषयविस्तार आदिकी दृष्टिसे विचार करनेपर इस ग्रंथका रचना काल ई० सन् की चौथी-पाँचवीं शती प्रतीत होता है । यह सत्य है कि अंग-विद्याने इस समय तक स्वयं एक शास्त्रका रूप प्राप्त कर लिया था । इस विषयके अन्य ग्रन्थोंमें कर-लक्खण और ज्ञान-प्रदीपिका भी इसी समयकी रचनाएँ हैं । कर-लक्खणके प्रारम्भमें हस्त रेखापर विचार किया है और बताया है कि मनुष्य इस जीवलोकमें लाभ-हानि, सुख-दुःख, जीवन-मरण और जय-पराजय रेखाओंके बलसे प्राप्त करता है । अतः पुरुषोंके दाहिने हाथ और स्त्रियोंके बायें हाथकी रेखाओंसे शुभाशुभ फलकी जानकारी प्राप्त करनी चाहिए । यथा