Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati
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भारतीय संस्कृति के विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
माना जाता है यदि वह अकेला उस भावमें स्थित हो तो उस भावको नष्ट करता है । जातक तत्षके परिज्ञानार्थ गणितमान द्वारा देशान्तर और कालान्तर संस्कारकर सर्वप्रथम लग्नका साघन करना चाहिए । एक लग्न उतने काल खण्डका नाम है जितनेमें किसी एक राशि का उदय होता है । अहोरात्र में बारह राशियोंका उदय होता है । अतएव एक, दिन-रात में बारह लग्नों की कल्पना की गयी है । लग्न साधन के हेतु सर्वप्रथम अपने स्थान का उदयमान निकालना आवश्यक है ।
सायन - मेष संक्रान्ति या सायन-तुला संक्रांति के दिन मध्याह्न कालमें द्वादश अंगुलात्मक शंकु की छाया जितनी हो, उतना ही अपने स्थानकी पलभाका प्रमाण होता है । इस पलभा को तीन स्थानोंमें रखकर प्रथम स्थान में दससे द्वितीय में आठसे और तृतीय स्थानमें १० । ३ से गुणा करने पर तीन राशियोंके चरखण्ड होते हैं । इनको मेषादि, तीन राशियोंमें ऋण, कर्कादि तीन राशियों में धन, तुलादि तीन राशियोंमें धन एवं मकरादि तीन राशियों में ऋण करनेसे उदयमान आता है ।
लग्न-साधन
अब जिस समयका लग्न बनाना हो, उस समय के स्पष्ट सूर्यमें तात्कालिक स्पष्ट अयनांश जोड़ देने से तात्नुालिक सायन सूर्य होता है । इस तात्कालिक सायन सूर्यके मुक्त या भोग्य अंशादि को स्वदेशी उदयमानसे गुणा करके तीस का भाग देनेपर लब्धपलादि मुक्त या भोग्य काल होता है - मुक्तांश को सोदयसे गुणाकर तीसका भाग देनेपर मुक्तबाल और भोग्यांश को सोदयसे गुणकर तीसका भाग देनेपर भोग्यकाल आता है । इस मुक्त या भोग्यकाल को इष्टघटी पलों में घटानेसे जो शेष रहे उसमें मुक्त या भोग्य राशियोंके उदयमानों को जहाँ तक घटा सकें घटाना चाहिए । शेष को तीससे गुणाकर अशुद्धोदय मानसे भाग देनेपर जो अंशादि फल प्राप्त हो उसको क्रमसे अशुद्ध राशिमें घटाने और शुद्ध राशिमें जोड़नेसे सायन स्पष्ट लग्न होता है । इसमें से अयनांश घटानेपर स्पष्ट लग्न आता है । इसप्रकार लग्नमान निकाल कर प्राणपद और गुलिक द्वारा लग्न की शुद्धिका भी विचारकर लेना चाहिए । जातकतत्व का प्रमुखकेन्द्र लग्न है । यदि लग्न ठीक न हो तो कुण्डली का समस्त फल मिथ्या होता है । अतएव लग्न-साधन में सबसे अधिक सतर्क रहने की आवश्यकता है । भारतीय चिन्तकोंने लग्न की शुद्धि को जाँच करने के लिए निम्नलिखित सिद्धान्त प्रतिपादित किये हैं
१ - प्राणपद एवं गुलिक के साधन द्वारा इष्टकाल के शुद्धाशुद्ध का निर्णयकर गणितागत लगनके साथ तुलना करनी चाहिए ।
२ - इष्टकाल सूर्य-स्थित नक्षत्र, जन्मकालीन चन्द्रमा, मान्दि एवं स्त्री-पुरुष जन्मयोग द्वारा लग्न का विचार करना अपेक्षित है ।
३ - प्रसूति का गृह, प्रसूति का वस्त्र एवं उपसूतिका संख्या आदि उत्पत्तिकालीन वातावरण के निर्णय द्वारा लग्नका निश्चय करना चाहिए ।
४ - जातकके शारीरिक चिह्न, गठन, रूप-रंग, इत्यादि शरीरकी बनावट द्वारा भी लग्न का निर्णय किया जाता है । जिन्हें ज्योतिष शास्त्रकी लग्न प्रणालीका अनुभव होता है। वे जातकके शरीरके दर्शन मात्रसे लग्नका निर्णय करते हैं ।