Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati
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३०२ भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान ग्रहोंका निर्देश और उनका फल
रेखाओंके वर्णनके अतिरिक्त हाथमें ग्रहोंके स्थानोंका निर्देश भी किया गया है । तर्जनीके मूलमें गुरुका स्थान, मध्यमा अंगुलिके मूलमें शनिका स्थान, अनामिकाके मूल प्रदेशमें रवि-स्थान, कनिष्ठकाके मूलमें बुध स्थान और अंगुष्ठके मूल प्रदेश में शुक्र स्थान है । मंगलके दो स्थान है-प्रथम तर्जनी और अंगूठेके बीच में पितृ रेखाके समाप्ति स्थानके नीचे द्वितीय बुध स्थानके नीचे और चन्द्र स्थानके ऊपर ऊर्ध्व रेखा तथा पितृ रेखाके नीचे वाले स्थान में है । मंगल स्थानके नीचे मणिबन्धके ऊपर तक करतलके पार्श्व भागके स्थानको चन्द्रस्थान कहते हैं । सूर्यके स्थानके उन्नत होनेसे व्यक्ति चंचल होता है । संगीत तथा अन्यान्य कलाओंका विद्वान् एवं नये विषयोंका आविष्कारक होता है । रवि और बुधका स्थान उच्च होनेसे व्यक्ति विज्ञ, शास्त्र-विशारद और सुवक्ता होता है । यदि इन दोनों ग्रहोंके स्थान अति उच्च हों तो अभ्युदय अधिक प्राप्त होता है पर दुर्व्यसनोंमें उसका उपभोग होता है । इस प्रकार आचार्योंने ग्रहोंके स्थान, उनका उच्चत्व, उन पर गयी हुई रेखाएं, ग्रहों पर स्थित चिह्न विशेष आदि सम्बन्धोंसे विभिन्न प्रकारके फलादेशोंका अंकन किया है । इतना ही नहीं, रेखाओं
और ग्रहोंके सम्बन्धसे स्वभाव, चरित्र, गण, स्वास्थ्य, लाभालाभ. उन्नतिके अवसर, घटित होनेवाली घटनाएं' पारिवारिक सुख आदिका भी विवेचन किया है। हस्त-संजीवनमें पांच रेखाओंको प्रधानता दी है । मद रेखा, धन रेखा, प्रारब्ध रेखा, मध्यरेखा और ऊर्व रेखा, नय रेखा मणिबन्धसे निकलकर शनि-क्षेत्र तक जाती है। इसी प्रकार मणिबन्ध स्थानसे निकलने वाली जीवन रेखा एवं भाग्य रेखाओंका भी विचारकर जन्मतिथि, जन्ममास, जन्म लगनका भी विचार किया है। इस विचारके लिए ध्रुवांक स्थिर किये हैं जिनके आधारसे वर्ष फल और जन्म-कुण्डली आदिका निर्माण सम्भव है। अभी तक इन ध्रुवांकोंकी निष्पत्तिका कोई कारण ज्ञात नहीं हो सका है। इनकी कल्पनाका क्या कारण है और क्यों ये ध्रुवांक निश्चित किये गये हैं, यह अज्ञात है । पर इतना तथ्य है कि इन ध्रुवांकों परसे गणित विधि करनेपर फलादेश जन्म कुण्डलीके समकक्ष ही प्राप्त होता है । इस प्रकार अंग विद्याका उत्तरोत्तर विकास होता रहा है और इसका विषय क्षेत्र आधुनिक सामुद्रिक शास्त्रसे अधिक विकसित है।