Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati
View full book text
________________
जातक-तत्त्व अर्थात् प्रारब्ध विचार राजा रविः शशधरस्तु बुधः कुमारः सेनापतिः क्षितिसुतः सचिवौ सितेज्यो। भृत्यास्तयोश्च रविजः सबला नराणां कुर्वन्ति जन्मसमये निजमेव रूपम् ।।सारावली॥
त्रिस्कन्धात्मक ज्योतिष शास्त्रका होरा एक आवश्यक अवयव है और इस होरा अवयवका नाम ही जातक शास्त्र है । कल्याण वर्माने लिखा है
जातकमिति प्रसिद्ध यल्लोके तदिह कीय॑ते होरा।
अथवा देवविमर्शनपर्यायः खल्वयं शब्दः'। अर्थात्-लोकमें प्रसिद्ध जातक शास्त्रको होरा कहा जाता है । यह प्रारब्ध विचारका पर्याय है। इसके अध्ययन द्वारा जीवनमें घटित होने वाली इष्टानिष्ट सूचक घटनाओंका परिमान प्राप्त होता है । जातकका व्युत्पत्तिगत अर्थ 'जातं जन्म तदधिकृत्य कृतो ग्रन्थः वा जातेन शिशोर्जन्मना कायतीति' अर्थात् जात या उत्पन्न हुए व्यक्तिके शुभाशुभत्वका निर्णय करने पाला शास्त्र जातक है।
होराकी व्युत्पत्ति 'महोरात्र' शब्दसे है। आदि वर्ण 'अ' और अन्तिम वर्ण 'त्र' का लोप होनेसे होरा शम्ब बनता है। जन्म कालीन ग्रहोंकी स्थिति, क्रिया, गति एवं युक्तिके अनुसार व्यक्तिके भविष्यका निरूपण होरा या जातकमें किया जाता है। यह कर्म-फल सूचक है। वराहमिहिरने होराकी व्युत्पत्तिके साथ इसके कर्मफल सूचकत्वकी ओर संकेत किया है
होरेत्यहोरात्रविकल्पमेके वा छन्ति पूर्वापरवर्णलोपात् ॥
कर्माणितं पूर्वभवे सदादि यत्तस्य पंक्ति समभिव्यनक्ति॥ अर्थात्-लग्न, होरा और जातक ये तीनों एक दृष्टिसे पर्यायवाची हैं। दिन या रात्रि में क्रान्तिवृत्तके किसी विशेष प्रदेशको क्षितिजमें लगनेके कारण लग्न-स्थानकी संज्ञा भी होरा या जातक मानी गयी है। जातक व्यक्तिके कर्मफलोंका प्रतिपादन करता है । अतएव जातक तस्वसे हमारा अभिप्राय व्यक्तिको गति क्रिया और शीलके विवेचनसे है। यहां गति, क्रिया और शील ये तीनों शब्द प्रतीक या लाक्षणिक है। अतः गति शब्दसे जातककी गतिविधियों, जीवनके उन्नत-अवनत, आरोह-अवरोहों एवं उसकी भविष्णुताके सम्बन्धमें विवेचन करना है । क्रिया शब्द पुरुषार्थका सूचक है। व्यक्ति अपने जीवनमें किस समय कैसा पुरुषार्थ कर सकेगा तथा उसके पुरुषार्थमें कब कैसी विघ्न बाधाएं उत्पन्न होंगी आदिका विचार क्रिया द्वारा किया जाता है । शीलसे तात्पर्य बाह्य और आन्तरिक व्यक्तित्वसे है ।
१. सारावली : २।४ प्रकाशक, मास्टर खेलाड़ीलाल एण्ड सन्स, वाराणसी, सन् १९५३ ई०, २. बृहन्यातक, लखनऊ संस्करण, अध्याय १, श्लोक ३