Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati
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अंगविद्या : प्रादुर्भाव और विकास अंगविद्या भारतकी प्राचीन विद्या है। इसका क्षेत्र वर्तमान सामुद्रिक शास्त्र से बहुत विस्तृत है। उपनिषदोंमें इस विद्याका संकेत प्राप्त होता है ।' महाकाव्योंमें भी इस विद्याके स्रोत मिलते हैं । महाभारत में हाथ-पाँव की रेखा, मुखाकृति, कण्ठस्वर, ललाट आकृति आदिका विचार विद्यमान है। विराट पर्व और उद्योग पर्वमें इस प्रकारके अनेक उल्लेख आये हैं जिनसे स्त्री पुरुषोंके अंगों द्वारा फलाफलपर प्रकाश पड़ता है ।
पाणिनिने अपने व्याकरणमें 'पतिघ्नी पाणिरेखा' जैसे पदोंका प्रयोग किया है। दिव्यावदानमें भी अंगविद्याके महत्वपूर्ण निर्देश प्राप्त हैं। बताया है कि अंगुष्ठके मूलसे जानेवाली एक ऊर्ध्व रेखा व्यक्तिको सुखी बनाती है, यदि इसी स्थानसे दूसरी रेखा निकलती है तो ज्ञानी होनेकी सूचना प्राप्त होती है और इसी स्थानसे यदि तीसरी रेखा निकलती है तो हेतु शास्त्रके पाण्डित्यका बोध कराती है। इसी प्रकार आयु-रेखा ऊर्ध्वरेखा, प्रभृति रेखाओंके साथ यव, तिल, व्यंजन आदिके शुभाशुभ फलोंका वर्णन किया है। रेखाओंके वर्ण, आकृति, गाम्भीर्य, दीर्घता, अल्पता आदिके विवेचन द्वारा विशेष-विशेष फलोंका निरूपण किया है। कन्या परीक्षण प्रसंगमें बताया है कि हस्त, पाद, नख, अंगुली, पाणिरेखा, जंघा, कटि, नाभि, ऊरु, ओष्ठ, जिह्वा, दन्त, कपोल, नासिका, अक्षि, भू, ललाट, कर्ण, केश, रोमराजि, स्वर, वर्ण आदिके संस्थान विशेष द्वारा शुभाशुभत्वका विचार करना चाहिए। इस प्रसंगमें अंगपरिज्ञान परीक्षण विधिसे कन्यांके भविष्यका अत्यन्त विस्तारपूर्वक वर्णन किया है । लगभग सौ पदोंमें यह प्रसंग समाप्त हुआ है और इसमें आजके सामुद्रिक शास्त्र की अपेक्षा अनेक मौलिक और नवीन सिद्धान्त आये हैं । लिखा है
हस्तौ पादौ निरीक्षत नखानि ांगुलोस्तथा। पाणिलेखाश्च जंघेच कटि नाभ्यरूमेवच ॥ ओष्ठौ जिह्वां च दान्तांश्च कपोलो नासिकां तथा । अक्षिभ्रुवौ ललाटं च कर्णौ केशांस्तथैव च ॥ मीतं सत्वं समीक्षेत कन्यानां शास्त्रकोविदः। तत्र पूर्व परीक्षेत स्वयमेव विचक्षणः ॥ हंस स्वरा मेघवर्णा नारी मधुरलोचना। अष्टौ पुत्रान् प्रसूयेत, दासीदासैः समावृता । उरु जंघे च पार्वे च विक्रमः संस्थितः । रक्तान्ते विपुले नेत्रे सा कन्या सुखमेधते ॥ मृगाक्षी मृगजंघा च मृगग्रीवा मृगोदरी।
युक्तनामा तु या नारी राजानमुपतिष्ठते ॥१॥ १. छान्दोग्य उपनिषद्, सप्तम अध्याय, खण्ड १, सूत्र २ ।