Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati
View full book text
________________
२३४
भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैम वाङ्मयका अवदान
हरिवंशपुराणके २०वें सर्गमें घोषा, महाघोषा और सुघोषा इन तीन वीणाओंका उल्लेख मिलता है । गीत प्रस्तुत करने के समय वीणा या बाँसुरीकी संगत आवश्यक मानी जाती थी। लिखा है
अनुकर्ण मुनेस्तस्य वीणावंशादिवादिनः ।
मृदुगीताः सनारीकाः जगुर्गन्धर्वपूर्वकाः ॥ इस प्रकार हरिवंशपुराणमें संगीत शास्त्रके सभी प्रमुख तत्त्व उपलब्ध होते हैं।
रविषेणके पद्मपुराणके २४ वें पर्वमें कैकयीके शिक्षा वर्णन सन्दर्भ में संगीत शास्त्रके तत्त्वोंका कथन आया है। इसमें नृत्यके तीन प्रमुख भेद किये हैं। अङ्गहाराषय, अभिनयामय
और व्यायामिक । संगीतको अभिव्यक्ति, कण्ठ, सिर और उरस्थलसे बतायी है। सप्त स्वरोंको द्रुत, मध्य और विलम्वित इन तीन लयोंसे सहित तथा अस्र तथा चतुस्र इन तालकी दो योनियोंसे सहित बताया है। स्थायी, संचारी, आरोही और अवरोही ये चार प्रकारके पद बतलाये हैं । धैवती, आर्षभी, षड्जषड़जा, उदीच्या, निषादिनी; गान्धारी, षड्जकैकशी और षड्जमध्यमा ये आठ जातियां बतायी हैं। प्रकारान्तरसे गान्धारोदीच्या, मध्यम पञ्चमी, गान्धार पञ्चमी, रक्तगान्धारी, मध्यमा, आन्ध्री, मध्यमोदीच्या, कर्मारवी, नन्दिनी और कैशिकी ये दश जातियाँ हैं । संगीतमें आठ या १० जातियां और तेरह प्रकारके अलंकार आवश्यक माने हैं । प्रसन्नादि, प्रसन्नान्त, मध्य प्रसाद और प्रसन्नाद्यवसान ये चार स्थायी पदके अलंकार हैं । निर्वृत्त, प्रस्थित, बिन्दु, प्रेखोलित, तार, मन्द्र और प्रसन्न ये छह संचारो पदके अलङ्कार हैं। आरोही पदका प्रसन्नादि नामका एक ही अलंकार है और अवरोही पदके प्रसन्नान्त तथा कोहर ये दो अलंकार हैं ।
वाद्योंके तत, अवनद्ध, सुषिर और घन ये चार भेद बतलाये हैं । शृङ्गार, हास्य, करुण, वीर, अद्भुत, भयानक, रोद्र, बीभत्स और शान्त इन ९ रसोंका संचार गीत और वाद्य करते थे। इस प्रकार कैकेयीकी कलाभोंके शिक्षणमें संगीत शास्त्रके सिद्धान्तोंका पूर्णतः समावेश हुआ है । सामान्यतः भक्ति और उत्सवोंके अवसरोंपर संगीतको योजना पद्मपुराणमें सर्वत्र उपलब्ध होती है।
कथाकोष और अन्य चरित ग्रन्थों में भी गीत, वाद्य, और नृत्यके सम्बन्धमें उल्लेख प्राप्त होते हैं। इन उल्लेखोंसे ज्ञात होता है कि संगीतका प्रचार केवल सम्भ्रान्त वर्गमें ही नहीं था, किन्तु जनसामान्यमें भी संगीतकी ओर अभिरुचि विद्यमान थी। आदि पुराणमें प्रतिपादित संगीत गोष्ठियाँ इस बातकी सूचक हैं कि इन गोष्ठियोंमें राजसभाओंके व्यक्तियोंके अतिरिक्त जनसामान्य भी भाग लेते थे। गणिकाएं और वाराङ्गनाएं नृत्य एवं संगोतमें विशेष प्रवीण होती थीं। आदिपुराण, हरिवंशपुराण और पद्मपुराण इन तीनोंमें मंगल गीतोंके गानेका निर्देश आया है। इस निर्देशसे यह अनुमान लगाना सहज है कि मंगल गीतोंका प्रचार जनसामान्यमें भी था। जिस प्रकार आज कृषि या उत्सवोंके विभिन्न अवसरोंपर लोकगीत गाये जाते हैं, उसी प्रकार ८वीं ९वीं शताब्दी में मंगल गीत गानेकी प्रथा प्रचलित थी । पद्मपुराणमें बताया है
१. हरिवंश पुराण, २०वा सर्ग, पद्य ५५