Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati
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भक्ति, संगीत एवं ललित कलाएँ
२३५
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ततो मङ्गलगीतेन प्रमदानां नभस्तलम् । तूर्यनादस्य विच्छेदे शब्दात्मकमिवाभवत् ॥
मृदङ्गनिस्वनं काचिच्चक्रे करतलाहतम् ।
कुर्वाणा सलिलं मन्दं गायत्री षट्पदैः समम् ।। पद्मपुराणके नवम पर्व में रावणके सम्बन्धमें बताया है कि वह भगवान्की भावभक्ति में इतना लीन हो गया कि उसने अपने भुजाकी नाड़ीरूपी तन्त्री खींचकर वीणा बजायी और सैकड़ों स्तुतियोंके द्वारा जिनराजका गुणगान किया । वह गा रहा था कि नाथ, आप देवोंके देव हो, लोक और अलोकको देखनेवाले हो । आपने अपने तेजसे समस्त लोकको अतिक्रान्त कर दिया है। आप कृतकृत्य हैं, महात्मा हैं। तीनों लोक आपकी पूजा करते हैं । आपने मोहरूपी महाशत्रुको नष्ट कर दिया है। आप वचनागोचर गुणोंके समूहको धारण करनेवाले हैं । इस प्रकार भक्ति विभोर गाते हुए रावणसे धरणेन्द्र आकृष्ट हुआ और उसके गीतकी प्रशंसा करने लगा--
जगाद रावणं साधो साधु गीतमिदं त्वया ।
जिनेन्द्रस्तुतिसम्बद्धं रोमहर्षणकारणम् ॥ संस्कृत काव्योंमें संगीत तत्त्व
___ जैन कवियोंमें जीवनके सौन्दर्य और भोगपक्षकी अवहेलना नहीं की गयी है। इनमें कला और काव्यका सुन्दर समन्वय दिखलाया गया है। संगीत और काव्यका मुख्य उद्देश्य मनोरंजनके साथ ज्ञान प्राप्त करना है। संस्कृतके सभी जैनकाव्योंमें आया है कि मनोरंजनके विभिन्न अवसरोंपर गायन-वादनका आयोजन किया जाता था। मन्त्र और श्लोक सुर-ताल
और लयके योगसे उच्चरित होनेपर संगीतका सृजन करते हैं। श्रुति, स्वर, वाद्य, ग्राम, मूर्च्छना, तान, राग-रागिनियोंका विनियोग, नर्तन आदि संगीतके सिद्धान्त उपलब्ध होते हैं । राग, ताल, नृत्य, भाव एवं हस्त आदिके विविध संकेत भी काव्योंमें उपलब्ध होते हैं । संगीतके प्रमुख तीनों अङ्गोंका ही पर्याप्त विवेचन मिलता है । वाद्य संगीतके प्रसंगमें अनेक प्रकारके वाद्योंका नाम निर्देश मिलता है। कवि वर्धमानने अपने वरांगचरितमें लिखा है--
भेरीमृदङ्गकंसालकाहलाशङ्खवेणवः । ढक्कापणवतूर्याणि शृङ्गाणि पटहादयः॥ वरांगचरित, ८५१०१
मृदङ्गकाहलाभेरीतालशङ्खरवैरमी।
मेघगम्भीरनिर्घोषान्निराकुर्वन्ति सर्वदा ॥ वरांगचरित, ११।६२ अर्थात् भेरी, मृदंग, कंसाल, काहला, शंख, वेणु, ढक्का, पणव, तूर्य, शृङ्ग, पटह, ताल-तांसा आदि वाद्य हैं । इन वाद्यों को मनोरम ध्वनि श्रोताओं को विह्वल कर देती है। १. हरिवंश पुराण, ८।२०,९८ २. पद्मपुराण, ९।१९६