Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati
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प्राचीन जैन सिक्कों का अध्ययन
प्रत्येक देश और जातिके जीवन उत्थानके लिये इतिहासको परमावश्यकता है, क्योंकि अतीतकी गौरवमयी दीपशिखा द्वारा पथ प्रदर्शनका कार्य इतिहाससे ही सम्पन्न होता है । जैन इतिहासका वर्षोसे अनुसंधान हो रहा है । शिलालेख, ताम्रपत्र, मूत्तिलेख, सिक्के, जैन ग्रन्थोंकी प्रशस्तियाँ, विदेशी यात्रियोंके यात्रा विवरण एवं देशी-विदेशी विद्वानों द्वारा लिखित ऐतिहासिक ग्रंथ जैन इतिहास निर्माण के मौलिक उपकरण हैं । सिक्कोंके अतिरिक्त अन्य ऐतिहासिक सामग्रीका उपयोग जैन एवं जैनेतर विद्वानोंने बराबर किया है। अब तक इतिहास निर्माणके प्रधान उपादान सिक्कोंको अध्ययन जैन दृष्टिकोणसे करनेकी दिशा प्रायः रिक्त है । यही कारण है कि भूगर्भसे प्राप्त सिक्कोंका अभी भी जैन मान्यता देने में विद्वानोंको झिझक हो रही है । अतएव प्रस्तुत निबंधका ध्येय विद्वानोंका ध्यान इस दिशाकी ओर आकृष्ट करना ही है।
सन् १८८४ में कनिंघम साहबने' अहिच्छत्रसे प्राप्त तांबेके सिक्के एक ओर पुष्प सहित कमल और दूसरी ओर 'श्री महाराज हरि गुप्तस्य' अङ्कित देखकर यह तर्क उपस्थित किया था कि इस सिक्के में अंकित धर्मभावना वैदिक धर्म और बौद्धधर्मसे भिन्न जैनधर्मकी धर्म भावना है। क्योंकि वैदिक धर्म भावनाको अभिव्यक्तिके लिए गुप्तवंशके राजाओंने यज्ञीय अश्वमूत्ति, विष्णुभक्त इस वंशके राजाओंने अपनी धर्मभावनाकी अभिव्यक्तिके लिए लक्ष्मीमूत्ति, शिवभक्तोंने अपनी धर्मभावनाकी अभिव्यक्तिके लिए नान्दी या शिवलिंग और बौद्धधर्मानुयायियोंने अपनी धर्मभावनाकी अभिव्यक्तिके लिये चैत्य आकृति अंकित की है । पुष्प सहित कमलकी आकृतिका सम्बन्ध केवल जैन धर्मोके प्रतीकोंके साथ ही जोड़ा जा सकता है। जैनधर्ममें अष्टमंगल द्रव्योंका बड़ा महत्त्व है। प्रत्येक कार्यमें उसकी सफलताके लिए इन मंगलद्रव्योंका उपयोग किया जाता है । कलशका इन मंगल द्रव्योंमें प्रमुख स्थान है । मथुरासे प्राप्त स्थापत्यविशेषोंमें मंगल कलशकी आकृति मिलती है तथा अनेक हस्तलिखित ग्रन्थोंमें भी मंगल कलशका चिह्न उपलब्ध है । अतः कुम्भ कलश प्रतीक अंकित सिक्के जैन है । कनिंघमसाहबके साथ भारतीय सिक्कोंका अध्ययन कैम्ब्रिज कॉलेजके अध्यापक रेप्सन, एलेन, गार्डनर, बुहलर, विसेन्टस्मिथ, सिउएड, ह्वाइटेड, राखालदास, वन्द्योपाध्याय, डा. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा आदि विद्वानोंने किया है । कनिंघम साहबके अतिरिक्त समस्त विद्वानोंने वैदिक, वैष्णव, शैव और बौद्धधर्मको धार्मिक भावनाएँ ही प्राप्त मुद्राओंमें व्यक्त की है । यदि ये विद्वान् जैन प्रतीकोंसे सुपरिचित होते तो अवश्य ही अनेक सिक्कोंको जैन सिद्ध करते । कारण स्पष्ट है कि सिक्कोंमें तद्-तद् धर्मानुयायी राजाओंने अपनी-अपनी धर्मभावनाको प्रतीकों द्वारा अभिव्यक्त किया है । प्राचीन कालमें अनेक जैन राजा हुए हैं, जिन्होंने अपनी मुद्राएँ प्रचलित की है। इन जैन राजाओंने अपनी मुद्राओंमें जैन प्रतीकों द्वारा अपनी धर्मभावनाको अभिव्यक्त किया है। पुरातन राजाओंमें ऐसे भी अनेक राजा हुए हैं जो आरम्भमें वैदिक या बौद्धधर्मका पालन करते थे, पर पीछे जैन आचार्योंसे प्रभावित होकर जैनधर्ममें दीक्षित हो गये अथवा प्रारम्भमें जैनधर्मका पालन करते १. जैन साहित्य नो इतिहास पृ० १३१, गुप्तवंशना जैनाचार्य शीर्षक