Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati
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भक्ति, संगीत एवं ललित कलाएँ
२२७ प्रमुख वाद्योंका संकेत किया है । द्वादशांग और चतुर्दशपूर्वके विषयका वर्णन करते हुए संगीत विद्याको क्रियाविशालके अन्तर्गत समाविष्ट किया है । आचार्य वीरसेनने सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वारके ५८ वें सूत्रके व्याख्यानमें देवागनानाम् मधुर संगीतमहषित ललित कथित आदि द्वारा मधुर संगीतका निर्देश किया है। आचार्य वीरसेनने अन्य कई स्थानों पर भी संगीतकी चर्चा की है और इसकी गणना ज्ञान साधनों में भी की है ।
प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र जैसे तर्क ग्रन्थोंमें शब्दको पौद्गलिक सिद्ध करते हुए संगीतके तत्त्वोंका निरूपण किया है। जो स्वर या ध्वनि चित्त में आह्लाद उत्पन्न कर देती है, वह स्वर या ध्वनि आनन्द की अनुभूति कराती है । ऐन्द्रिक आनन्द जब अपनी सीमाका अतिक्रमणकर अतीन्द्रिय आनन्दके रूपमें परिणत होता है, तो यही आत्मानुभूतिका रूप ले लेता है । इस प्रकार जनदर्शन ग्रन्थों में संगीतके मूल सिद्धान्तोंका कथन आया है ।
पुराण और काव्य ग्रन्थों में तो संगीतकी विस्तृत चर्चाएँ आयो हैं । जिनसेन द्वितीयने आदि पुराणके १२ वें पर्वमें बताया है कि देवांगना माता मरुदेवीकी सेवा करनेके समय वाद्य और नृत्यगोष्ठी सम्पन्न करती थो । गीत गोष्ठी द्वारा वे स्पष्ट और गाना गाती हुई माता मरुदेवीका मनोरंजन करती थीं। वे ताल के साथ नृत्य करना, अङ्गोंका संचालन करना एवं विभिन्न प्रकारको नृत्य सम्बन्धी भंगिमाओं द्वारा माता का मनोरंजन करती थीं। लिखा है
काश्चित् संगीतगोष्ठीषु दरोद्भिन्नस्मितेमुखेः । बभुः पद्मरिवाब्जिन्यो विरलोद्भिन्नकेसरः ॥ काश्चिदोष्ठाग्रसंदष्टवेणवोऽणुभ्रुवो बभुः । मदनाग्निमिवाध्मातु कृतयत्नाः सफूत्कृतम् ।। वेणुध्मा वेणवीर्यष्टीर्मार्जन्त्यः करपल्लवैः । चित्रं पल्लवितांश्चक्रुः प्रेक्षकाणां मनोद्रमान ॥ सङ्गीतकविधौ काश्चित् स्पृशन्त्यः परिवादिनीः। कराङ्गुलीभिरातेनुः गानमामन्द्रमूर्च्छनाः ।। तन्त्र्यो मधुरमारेणुः तत्कराङ्गलिताडिता।। अयं तान्त्रो गुणाः कोऽपि ताडनाद् याति यद्वशम् ।। वंशः संदष्टमालोक्य तासां तु दशनच्छदम् । वीणालाबुभिराश्लेषि घनं तत्स्तनमण्डलम् ।। मृदङ्गवादनः काश्चिद् बभुरुत्क्षिप्तबाहवः । तत्कलाकौशले श्लाघां कतुकामा इवात्मनः । मृदङ्गास्तत्करस्पर्शात् तदा मन्द्रं विसस्वनुः ।
तत्कलाकौशलं तासाम् उत्कुर्वाणा इवोच्चकै' :॥ अर्थात् कितनी ही देवांगनाएँ संगीत गोष्ठियों में हंसते हुए उसी प्रकार सुशोभित हो रही थीं, जिस प्रकार विकसित कमलोंसे युक्त कमलिनियां सुशोभित होती हैं । बहुत सी छोटी १. मादिपुराण, १२ वा पर्व, पद्य १९८-२०५