Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati
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भक्ति, संगीत एवं ललित कलाएँ
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सामूहिक रूपमें नृत्य करती हुई नर्तकियाँ जब सिमटकर सूचीके रूपमें परिणत हो जाती हैं, तब उसे सूची नृत्य कहते हैं। किसी पुरुषके हाथ की अंगुलियोंपर लीलापूर्वक नृत्य करना सूची नृत्य है ।'
स्त्रियाँ अपने कटाओंका विक्षेपण करती हुई किसी पुरुषकी बाहुओंपर स्थित हो जो नृत्य करती हैं, उसे कटाक्ष' नृत्य कहा जाता है । इस नृत्यकी प्रमुखतः दो विशेषताएँ हैं । प्रथम विशेषता यह है कि यह नृत्य नारियों द्वारा ही सम्पन्न होता है तथा इसमें शृंगारिक भावोंकी प्रधानता होती है । दूसरी विशेषता यह है कि इसका सम्पादन पुरुषकी बाहुओं पर स्थित होकर किया जाता है ।
भावोंकी सुकुमार अभिव्यञ्जनाको लास्य कहते हैं । श्रावण आदि महीनोंके दोलाक्रीड़ा के अवसर पर किये जानेवाले कामिनियोंके मधुर तथा सुकुमार नृत्य लास्य कहलाते हैं । मयूर - के समान कोमल नर्तन लास्य के अन्तर्गत है ।
बहुरूपिणी विद्या वह कहलाती है, जिसमें व्यक्ति अपनी अनेक आकृतियाँ बना ले । कामिनियाँ निर्मल मुक्तामणि जटित हारोंको पहनकर उस प्रकार नृत्य करें, जिससे उनकी आकृतियाँ उस हारके मणियोंमें प्रतिबिम्बित हों । अनेक प्रतिबिम्ब पड़नेके कारण ही इस नृत्यको बहुरूपिणी नृत्य कहा जाता है । आदिपुराण में वास्तविक नृत्य उसीको माना गया है, जिसमें अंगों को विभिन्न प्रकारकी चेष्टाएँ सम्पन्न हों और नृत्य करनेवाला अनेक रूपोंमें अपनी रसभावमयी मुद्राओं का प्रदर्शन करे ।
स्पष्ट है कि रसभाव, अनुभाव और चेष्टाएँ नृत्य के लिए आवश्यक हैं । नृत्य शृंगार, शान्त और वीररसके भावोंकी अभिव्यक्ति के लिए सम्पन्न किया जाता था । नृत्य उत्सवोंके अवसरपर घरमें और साधारणतः नाट्यशालाओंमें सम्पन्न होते थे । आदि तीर्थकर ऋषभ - देवको नृत्य करती हुई नीलाञ्जनाके विलयनके कारण ही विरक्ति उत्पन्न हुई थी ।
इस प्रकार द्वितीय जिनसेनने आदिपुराणमें गीत, वाद्य और नृत्यका उल्लेखकर जीवन भोगके लिए संगीतका महत्त्व प्रतिपादित किया है ।
प्रथम जिनसेनने अपने हरिवंश पुराणके उन्नीसवें सर्ग में संगीत विद्या का साङ्गोपाङ्ग चित्रण किया है । वसुदेव शौरीपुर से चलकर विजयखेट नगर में पहुँचे और वहाँ सुग्रीव नामक गन्धर्वाचार्यकी सोमा और विजयसेना नामकी पुत्रियोंको संगीतशास्त्रमें पराजित कर विवाह किया । एक दिन वे भ्रमण करते हुए एक अटवीमें प्रविष्ट हुए, जहाँ जलावर्त्त नामक सरोवर में प्रविष्ट हो जलतरंगका वादन किया। बताया है
जलं मुरजनिर्घोषं निशम्य रवमुत्तस्थौ तत्र
समवादयदुन्नतः । सुप्तो महागजः ॥ *
अर्थात् जलावर्त सरोवरकी जलतरंगों का वादन मुरजके समान कर मधुर और संवेदनोत्पादक ध्वनि उत्पन्न की है । इस कथन से यह संकेत प्राप्त होता है कि वसुदेव जलतरंगवाद्य में
भी निपुण थे ।
९. वही, १४।१४२; ३. वही, १४।१३३ ।
२. वही, १४ । १४४;
४. हरिवंशपुराण १९।६२;