Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
७. तारस्वरसे गाना ८. मूर्च्छनाओंका ध्यान रखते हुए गायन करना
उरस, कण्ठ एवं शीर्षसे पदबद्ध गेयपद सहित, ताल समान पदका उच्चारण करना एवं सात स्वरके समक्षरों सहित गाना ही गीत कहा गया है । गीतको दोषरहित, अर्थयुक्त, काव्यालंकारयुक्त, उपसंहार उपचारयुक्त, मधुर शब्दार्थयुक्त एवं प्रमाणयुक्त होना चाहिये ।
आदिपुराणके १६वें पर्वमें वारवनिताओं द्वारा इसी प्रकारके गीत गवाये गये हैं । श्यामा-षोडश वर्षीया मधुर स्वरसे गीतका गायन करती है जबकि गौरी चातुर्यसे गीत गाती है । पिंगला और कपिलाको गीत गानेके लिये वर्जित माना गया है।
आदिपुराणमें पदध्वनि अर्थात् नृत्यका विशेष वर्णन आया है । इसमें भावोंका अनुकरण करनेके साथ-साथ आङ्गिक अभिनयपर जोर दिया गया है । नृत्यकी विभिन्न मुद्राओंका संकेत भी आदिपुराणमें प्राप्त होता है। ताण्डव नृत्यको उद्धतनृत्य कहा है। इसमें विविध रेचकों, अङ्गहारों तथा पिण्डीबन्धोंका समावेश है । इस नृत्यमें वर्धमानक तालका समावेश विशेषरूपसे रहता है । यह ताल, कलाओं, वर्णों और लयोंपर आधारित रहता है । आदिपुराणमें ताण्डव नृत्यका स्वरूप विवेचन करते हुए लिखा है कि पाद, कटि, कण्ठ और हाथोंको अनेक प्रकारसे घुमाकर उत्तम रस दिखलाना ताण्डव नृत्य है ।' ताण्डव नृत्यकी कई विधियाँ प्रचलित थीं। पुष्पाञ्जलि क्षेपण करते हुए नृत्य करना, पुष्पाञ्जलि-प्रकीर्णक नामक ताण्डव नृत्य है। इसी प्रकार विभिन्न रूपोंमें सुगन्धित जलकी वर्षा करते हुए नृत्य करना जलसेचन नामक ताण्डव नृत्य है।
अलातचक्र' नृत्यमें शीघ्रतापूर्वक फिरकी लेते हुए विभिन्न मुद्राओं द्वारा शरीरका अंगसंचार किया जाता था । शीघ्रतासे नृत्य करनेके कारण ही इसे अलातचक्र कहा गया है ।
जिस नृत्यमें क्षणभरके लिए व्यापक हो जाना, क्षणभरमें छोटा बन जाना, क्षणभरमें निकट दिखलायी पड़ना, क्षणभरमें दूर पहुँच जाना, क्षणभरमें आकाशमें दिखलायी पड़ना, वह इन्द्रजाल नामक नृत्य है । इस नृत्यमें नाना प्रकारकी लास्य क्रीड़ाएं भी सम्मिलित रहती हैं । नृत्यकी गतिविधि अत्यन्त शीघ्रता पूर्वक प्रदर्शित की जाती है, जिससे नर्तक या नर्तकीका स्वरूप ही दृष्टिगोचर नहीं होता।
___चक्रनृत्य में नर्तकियोंकी फिरकियां इस प्रकारमें घटित होती हैं, जिससे केवल शिर या सेहरा अंश ही घूमता है । मुकुटका सेहरा घूमने के कारण ही इसे चक्रसंज्ञा प्राप्त है ।।
निष्क्रमण' नृत्यमें प्रवेश और निर्गमन ये दोनों ही क्रियाएँ साथ-साथ चलती है । फिरकी लगानेवाली नर्तकियाँ कभी दो-तीन हाथ आगेकी ओर बढ़ती हैं और कभी दो-तीन हाथ पीछेकी ओर हटती हैं । फिरकी लगानेको यह प्रक्रिया ही निष्क्रमण नामसे अभिहित की जाती है। १. चित्रश्च रेचकैः पादकटिकण्ठकराश्रितः ।
ननाट ताण्डवं शक्रो रसमूजितं दर्शयन् ॥ -आदि० १४।१२१ २. वही, १४।११४; ३. वही, १४।१२८; ४. वही, १४।१३०-१३१; ५. वही, १४।१३६; ६. वही, १४।१३४;