Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
दुर्गमें प्रवेशकर किया जा सके। यदि शत्रु युद्ध द्वारा वशमें न किया जा सके तो उसके साथ ऐसी नीतिका व्यवहार करना चाहिये जिससे वह कपट द्वारा वशमें हो सके। शत्रुकी सेनामें फूट डालना, शत्रु सैनिकोंको अपनी ओर मिलाना, अपनी सेनाको सब प्रकार संतुष्ट करना, अमात्य और सेनापतिको धन-धान्य द्वारा प्रसन्न करना, प्रजामें सब प्रकार शान्ति रखनेकी चेष्टा करना, शत्रुके राज्यके ऊपर अन्य किसी राजा द्वारा आक्रमण करा देना, शत्रु सेनाकी खाद्य सामग्री नष्ट कर देना, शत्रु द्वारा अधिकृत अपने देशकी सम्पत्ति नष्ट कर देना आदि नीतिका प्रयोग करना आवश्यक बताया है। युद्धोंके लक्षण और भेद बतलाते हुए कूटयुद्ध, तूष्णीयुद्ध आदि भेदोंका सुन्दर विवेचन किया है, जिससे युद्ध सम्बन्धी नीतिका पूर्ण परिचय मिल जाता है। कूटयुद्ध में बताया है कि एक ओर से छोटी-सी सेनाको टुकड़ी लेकर शत्रु सेनापर आक्रमण करे तथा दूसरी ओरसे दूसरी टुकड़ी द्वारा, जिसका शत्रुको पता भी न लगे धावा कर दे, जिससे शत्रुसेना अपने आप अस्त्र-शस्त्र छोड़कर भाग जायगी। यह आक्रमण इतनी बुद्धिमानी और दूरदर्शिताके साथ करना चाहिये, जिससे विरोधी सेनामें भगदड़ मच जाय और मैदान खाली हो जाय । इसी प्रकार तूष्णी युद्ध में बताया गया है कि विष प्रयोग, विषैली वेश्याओंका प्रयोग, खाद्य पदार्थों में विषमिश्रण, राजा या प्रधान सेनापतिको कर्तव्य च्युत करने के लिये व्यसनोंका उपयोग करना; जिससे बिना युद्ध किये ही शत्रु वशमें हो जाय, तूष्णी युद्ध है।
राजाको युद्धक्षेत्रमें काम आये सैनिकोंके परिवारके भरण-पोषणका प्रबन्ध करना आवश्यक है। जो राजा ऐसा नहीं करता, वह उस सैनिकके परिवारका ऋणी है। इसी तरह सैनिकको युद्धक्षेत्रमें युद्धको अश्वमेधके समान कल्याणकारी समझना चाहिये । जो रणक्षेत्रसे भागता है, उसका इस लोक और परलोकमें कल्याण नहीं हो सकता। युद्ध क्षेत्रके लिये गमन करनेकी विधिका निरूपण करते समय वताया है कि राजाको आधी सेना रणक्षेत्रमें भेजनी चाहिये और आधी सेना दुर्गमें सुरक्षित रखनी चाहिये तथा नवीन सैनिकोंकी शिक्षा भी आरम्भ कर देनी चाहिये । युद्धकालमें कृषि और पशुओं की वृद्धिका भी पूर्ण ध्यान रखना आवश्यक है। सैनिकोंके परिनिष्क्रमणके सम्बन्धमें भी कई नियम निर्धारित किये हैं, जो कि आजकलकी युद्धनोतिसे बहुत कुछ साम्यता रखते हैं।"
न्यायालयकी व्यवस्था और उसके लिये नियमोंका निर्धारण करते हुए सोमदेव सूरिने अनेक नियमोपनियम बताये हैं तथा राजनीतिकी अनेक पेचीदी बातोंका वर्णन किया
१. अन्याभिमुखं प्रयाण कमुपक्रम्यान्योपघातकरणं कूटयुद्धं ॥-नीति वा० युद्ध स० सू० ९० २. विषविषमपुरुषोपनिषदवाग्योपजापैः परोपघातानुष्ठानं तूष्णीयुद्धः ॥
___ नीतिवा० यु० स० सू० ९१ ३. राजा राजकार्येषु मृतानां सन्ततिमपोषयन्नृणभागी स्यात् साधुनोपचर्यते तन्त्रेण ।।
-नी० यु० सू० ९३ ४. स्वामिनः पुरःसरण युद्धेऽश्वमेधसमं । युधि स्वामिनं परित्यजतो नास्तीहामुत्र च कुशलं ॥
नी० यु० सू० ९४-९५ ५. देखें-नीतिवाक्यामृतं युद्धसमुद्देश सू० ९६-१०१