Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati
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जैनकला : एक विश्लेषण
आत्माकी सुकोमल, मंजु, मृदुल और मनोज्ञ नैतिक साधन- शृङ्खला कला कहलाती है । मानव शिशु जिस क्षण आँखें खोलता है, उसी क्षणसे बाह्य सृष्टिकी विविध वस्तुओंकी छाप अलक्ष्य रूपसे उसके कल्पनाशील मनपर पड़ने लगती है । संसारका ऐसा कोई परमाणु नहीं, जो उसपर अपना प्रभाव बिना डाले रहता हो । किन्तु विशेषता संस्कार ग्रहण करने वाले की होती है, वह जैसा कल्पनाशील, सजग और सुबोध होता है, संस्कारके वातावरणको भी उसी रूपमें ग्रहण करता है । इस ग्रहीत संस्कारको मनुष्य अपने तक ही सीमित नहीं रखना चाहता है, बल्कि अन्यपर अभिव्यक्त करनेके लिये अनिवार्य सा हो जाता है ।
अथवा यों समझिये कि मानव के हृदय और मस्तिष्ककी रचना ही कुछ ऐसी है, जिससे संसारका वातावरण उसे प्रभावित करता है । जिस प्रकार चंचल पवन जलराशिपर अपना प्रभाव अंकित करता है, या मयूख रश्मियाँ जैसे शिलाखण्डोंपर अपना शीतोष्ण गुण अंकित करती हैं, उसी प्रकार मानव मस्तिष्कमें जड़ चेतन पदार्थोंके चित्र अंकित होते रहते हैं । परन्तु मनुष्यकी आत्मामें नैसर्गिक प्रेरणा होती है कि वह उन चित्रोंको अभिव्यक्त करे । अभिव्यञ्जनाकी यही प्रणाली कला है ।
भारतीय कलाकी उन्नतिमें जैनाचार्योंका स्थान भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं । कारण कोई भी धर्म तभी अपना अस्तित्व रख सकता है जब उसकी कला उच्च कोटि की हो । सांस्कृतिक महत्ता और गौरव गरिमा ही धर्मका प्राण है । जैनेतर विचारक और विवेचकोंने समयसमयपर जैनदर्शन और जैनकलाकी मुक्तकण्ठसे प्रशंसा की है । यद्यपि भारतीय कलाका साम्प्रदायिक वर्गीकरण जैनशैली, बौद्धशैली और ब्राह्मणशैली कलाका नहीं हो सकता है । बूलर' का कथन है कि भारतीय कलामें साम्प्रदायिकता नहीं है । बौद्ध, जैन और ब्राह्मण सभी की भावनाका स्रोत एक ही है । कुमार स्वामी ने हिस्ट्री इन्डियन एण्ड इण्डोनेशन आर्टमें बताया है कि शुद्धशैली के हिसाब से प्रान्तीय भेद या साम्प्रदायिक भेद कलामें संभव नहीं । दार्शनिक भेद होनेके कारण कलामें कुछ अन्तर आया है, पर कलाका वर्गीकरण समय और भूगोल अनुसार ही हो सकता है । भारत के प्रधान तीनों धर्म—जैन, बौद्ध और ब्राह्मणमें कलाकी भावना आन्तरिक सौन्दर्याभिव्यक्ति की ही रही है, अतः कलाके शैलीगत भेद मानना उचित नहीं ।
1. Jain Art in the North P. 247
2. History of Indian and Indonesion Art P. 106; the Jaina Stupa and other Antiquties of Mathura, Int p. 6; Mehta, Studies in Indian Painting, pp. 1-2; Percy Brown, Indian Painting "PP. 38, 51.; History of Indian Architecture,