Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati
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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
१७७ मनको मुग्ध करती है। मन्दिर निर्माणके सम्बन्धमें जैनाचार्योने जितने नियम प्रचलित किये हैं, उनके देखनेसे मालूम होता है कि मन्दिर निर्माण शैलीके अनेक भेद थे।
धुव-धन्न-जया नंद-खर-कंत-मणोरमा सुमुहा-दुमुहा। कूर सुपक्ख-धणद खय आक्कंद विउल विजया गिहा॥
-वास्तुसार गा० ७१ अर्थात्-ध्रुव, धान्य, जय, नन्द, खर, कान्त, मनोरम, सुमुख, दुर्मुख , क्रूर, सुपक्ष, घनद, क्षय, आक्रन्द, विपुल और विजया ये १६ प्रकारके प्रासाद होते हैं, शाला,'आलिन्द, गुजारी, दीवाल, पट्टे, स्तम्भ और झरोखेके भेदोंसे प्रासाद ९६७० प्रकारके बनाये जाते हैं। प्रतिष्ठासार संग्रहमें मन्दिरके स्थानोंका उल्लेख निम्न प्रकार है
जन्म-निष्क्रमणस्थानज्ञाननिर्वाणभूमिषु । अन्येषु पुण्यदेशेषु नदीकूले नगरेषु च ॥ प्रामादिसन्निवेशेषु समुद्रपुलिनेषु च ।
अन्येषु वा मनोज्ञेषु कारयेज्जिनमन्दिरम् ।। इसी प्रकारके चैत्यालयके सम्बन्धमें भी उल्लेख मिलता है
सिंहो येन जिनेश्वरस्य सदने निर्मापितो तन्मुखे। कुर्यात्कीत्तिमुखं त्रिशूलसहितं घण्टादिभिर्भूषितम् ॥ तत्पावे मदनस्य हस्तयमलं पञ्चाङ्गुलीसंयुतम् ।
केतुस्वर्णघटोज्ज्वलञ्च शिखरं केत्वाय निर्मापितम् ।। वास्तु निर्माणके और भी अन्य प्रकारके नियम बताये गये हैं, जिन नियमोंके देखनेसे जैन वास्तुकलाकी महत्ताका सहज अनुमान किया जा सकता है ।
मूर्तिकला-वास्तुकलाके अनन्तर मूर्तिकलाका कार्य आरम्भ होता है। वास्तुकला जिस आभ्यन्तरिक आत्माकी ओर संकेत करती है, मूर्तिकला उसीको प्रकाशित करती है। मूर्तिकलामें आभ्यन्तरिक आत्मा और बाहरी साधनोंमें समन्वय रहता है। अतएव सफल मूर्तिकलामें आध्यात्मिक और शारीरिक सौन्दर्यकी समन्वित अभिव्यञ्जना की जाती है । मानव स्वभावतः अमूर्तिक गुणोंके स्तवनसे संतोष नहीं करता, उसका भावुक हृदय एक साकार आधार चाहता है, जिसके समक्ष वह अपने भीतरकी बातको कह सके और जिसके गुणोंको अपने जीवनमें उतारकर संतोष प्राप्त कर सके । मूर्तिकलाके आविष्कारका कारण बहुत कुछ उपर्युक्त प्रवृत्ति ही है । जैन सम्प्रदायमें आत्मिक गुणोंके चिन्तनके लिये तीर्थङ्करों और लौकिक अभ्युदय को प्राप्तिके लिये यक्ष-यक्षिणियोंकी मूर्तियाँ प्राचीनकालमें ही बनती थीं। भूगर्भसे जितनी प्राचीन जैन प्रतिमाएं निकली हैं, उतनी अन्य सम्प्रदाय की नहीं। ई० पू० ५-६ वर्ष पहलेकी भी जैन प्रतिमाएं उपलब्ध हो चुकी हैं । जैनमूत्तिकी रूपरेखा निम्न प्रकार है१. औवरय अलिंद-गई गुजारी-भित्तीण-पट्ट-थंभाण । जालिमंडवाणय भेएण गिहा उवज्जति ।।
-वास्तुसार गा० ६९