Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान इस प्रकरणमें गर्भाधान, प्रीति, सुप्रीति, धृति, मोद, प्रमोद, ताम कर्म, बहिर्यान, निषधा, अन्न प्राशन, व्युष्टि, चौल, लिपि-संख्यान संस्कारोंका उल्लेख किया है।
(२) कन्याओंका लालन-पालन एवं उनकी शिक्षा-दीक्षा भी पुत्रोंके समान ही होती थी । भगवान् ऋषभदेव अपनी ब्राह्मी और सुन्दरी नामकी पुत्रियोंको शिक्षा देनेके लिये प्रेरित करते हुए कहते हैं
विद्यावान् पुरुषो लोके सम्मतिं याति कोविदः । नारी च तद्वती धत्ते स्त्रीसृष्टेरग्रिमं पदम् ॥
-(१६ पर्व श्लो० ९८२) तद् विद्याग्रहणे यत्नं पुत्रिके कुरुतं युवाम् ।। तत्संग्रहणकालोऽयं युवयोर्वर्ततेऽधुना ॥
-(पर्व १६ श्लो० १०२) इत्युक्त्वा मुहुराशास्य विस्तीर्णे हेमपट्टके। अधिवास्य स्वचित्तस्थां श्रुतदेवीं सपर्यया ।। विभुः करद्वयेनाभ्यां लिखन्नक्षरमालिकाम् । उपादिशल्लिपि संख्यास्थानं चाकैरनुक्रमात् ॥
-(प० १६–१०३, १०४) इन उद्धरणोंसे स्पष्ट है कि भगवान् ऋषभदेवने अपने पुत्रोंकी अपेक्षा कन्याओंकी शिक्षाका पहले प्रबन्ध किया था । अंक विद्या और अक्षर विद्यामें ब्राह्मी और सुन्दरी ने पूर्णतया पाण्डित्य प्राप्त किया था।
(३) विवाहके अवसर पर वर-वरणकी स्वतंत्रता कन्याओंको प्राप्त थी । आदिपुराण में ऐसे अनेक स्थल हैं जिनसे सिद्ध है कि स्वयंवरों में कन्याएँ प्रस्तुत होकर स्वेच्छानुसार वरका वरण करती थीं।
ऐसे भी प्रमाण उपलब्ध हैं कि कन्याएँ आजीवन अविवाहिता रहकर समाजकी सेवा करती हुई अपना आत्मकल्याण करती थीं। ब्राह्मी और सुन्दरीने कौमार्य अवस्थामें ही दीक्षा ग्रहणकर आत्म-कल्याण किया था। उस समय समाजमें कन्याका विवाहिता हो जाना आवश्यक नहीं था। राजपरिवारोंके अतिरिक्त जनसाधारणमें भी कन्याकी स्थिति आजसे कहीं अच्छी थी। कन्याएं वयस्क होकर स्वेच्छानुसार अपने पिताकी सम्पत्तिमेंसे दानादिकके कार्य करती थीं। आदिपुराण (पर्व ४३, श्लोक १७४, १७५) में बताया गया है कि सुलोचनाने कौमार्य अवस्थामें ही बहुत-सी रत्नमयो प्रतिमाओंका निर्माण कराया और उन प्रतिमाओंकी प्रतिष्ठा कराके बृहत् पूजनाभिषेक किया।
(४) कन्याका पैतृक सम्पत्तिमें तो अधिकार था ही पर वह आजीविकाके लिये स्वयं भी अर्जन कर सकती थी। आजीविका अजनके लिये उन्हें मूर्तिकला, चित्रकलाके साथ ऐसी कलाओंकी भी शिक्षा दी जाती थी जिससे वे अपने भरण-पोषणके योग्य अर्जन कर सकती थीं। पिता पुत्रीसे उसके विवाहके अवसर पर तो सम्मति लेता ही था पर आजीविका अर्जनके साधनोंपर भी उससे सम्मति लेता था। आदिपुराणके एवं पर्वमें बताया है कि वज़दन्त