Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वा मयका अवदान
हिन्दू पुराणोंमें कुणालका शासन काल ई० पू० २३२ से ई० पू० २२४ तक अर्थात् ८ वर्ष तक माना गया है । परन्तु जैन और बौद्ध साहित्यमें अन्धा होनेके कारण कुणालको शासक नहीं माना । वास्तविक बात यह है कि पुराणोंमें अशोक तक तो मौर्य वंशावली एक रूपमें मिलती है, पर इसके बादकी वंशावली में परस्पर मत भिन्नता है। विष्णु पुराण और भगवत पुराणमें अशोकके उत्तराधिकारीका नाम 'सुयश' है; किन्तु डसी स्थानपर वायु पुराणमें 'कुणाल' और ब्रह्माण्डपुराणमें कुशाल है । सुयश, कुणाल या कुशालके पीछे विष्णुपुराणमें 'दशरय' का नाम है एवं वायु और ब्रह्माण्डपुराणमें बन्धुपालितका नाम मिलता है। भागवतकार इसी स्थानपर 'संयत' नाम लिखते हैं । मत्स्य पुराणमें अशोकका उत्तराधिकारी 'सप्तति' (सम्प्रति) बताया है । पुराणकारोंकी इस मत भिन्नताके आधारपर यही कहा जा सकता है कि अशोकके पिछले मौर्य राजाओंकी वंशावलीकी पुराणकारोंको यथार्थ जानकारी नहीं थी। मत्स्यपुराणके कथनका समर्थन जैन और बौद्ध साहित्यसे होता है, अतः अशोकका उत्तराधिकारी सम्प्रतिको ही मानना उचित है । मत्स्यपुराणमें बताया है
षट्त्रिंशत्तु समा राजा, भविताऽशोक एव च । सप्तति (सम्प्रति) दर्शवर्षाणि, तस्य नप्ता भविष्यति ॥ राजा दशरथोऽष्टी तु, तस्य पुत्रो भविष्यति ।
-मत्स्यपुराण अध्याय २७२ श्लो० २३-२४ बौद्ध ग्रन्थ दिव्यावदानके २९वें अवदानमें जो वृत्तान्त आया है, उससे प्रकट है कि अशोककी बीमारीके समय अशोकका पौत्र युवराज सम्प्रति पाटलीपुत्रमें था और अशोककी मृत्युके उपरान्त उसका वहीं राज्याभिषेक हुआ ।
१. "अपि च राधगुप्त, अयं मे मनोरथो बभूव कोटीशतं भगवच्छासने दास्यामीति, स च
मेऽभिप्रायो न परिपूर्णः । ततो राजाऽशोकेन चत्वारः कोटयः परिपूरयिष्यामीति हिरण्यं सुवर्ण कुक्कुटारामं प्रेषयितुमारब्धः। ___ तस्मिंश्च समये कुनालस्य सम्पदी नाम पुत्रो युवराज्ये प्रर्वतते । तस्यामात्यैरभिहितं-कुमार ! अशोको राजा स्वल्पकालावस्थायी इदं च द्रव्यं कुर्कुटारामं प्रेषयते कोशबलिनश्च राजानो निवारयितव्यः । यावत् कुमारेण भांडागारिकः प्रतिषिताः । यदा राज्ञोऽशोकस्याप्रतिषिद्धाः (?) तस्य सुवर्णभाजने आहारमुपनाम्यते, भुक्त्वा तानि सुवर्णभाजनानि कुक्कुटारामं प्रेषयति ।......"अथ राजाऽशोक, साश्रुदुर्दिननयनवदनोऽमात्यानुवाच दाक्षिण्यात् अनृतं हि किं कथय, भ्रष्टाधिराज्या वयम , शेषं त्वामलकार्षमित्यवसितं यत्र प्रभुत्वं मम । ऐश्वयं धिगनार्यमुद्धतनदीतोयप्रवेशोपमम्, महँन्द्रस्य ममापि यत् प्रतिभयं दारिद्यमभ्यागतम् ॥
अर्थात्-राजा अशोकको बौद्धसंघको सौ करोड़ सुवर्णदान देनेकी इच्छा हुई और उसने दान देना शुरु किया । ३६ वर्ष में उसने ९६ करोड़ सुवर्ण तो दे दिया, पर अभी ४ करोड़ देना बाकी था, तब वह बीमार पड़ गया, जिन्दगी का भरोसा न समझकर उसने अवशेष चार करोडको चुका देनेके लिए खजानेसे कुक्कुटाराममें भिक्षुओंके लिए द्रव्य भेजना