Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati
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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
यास्तपस्विनः मु [जीरस्तु ] यथान्याय्यं महिमाशेषवस्तुकन् [ ] कुमारदत्तप्रमुखाहिसूरया अनेकाशास्त्रागमखिन्नबुद्धयः जगत्यतीतास्सुततपोधनान्विताः गणोस्य तेषां भवति प्रमाणतः ।। धर्मेप्सुमिज्जनिपदेस्सनागरः जिनेन्द्रपूजा सततं प्रणेया इति स्थिति स्थापितवान् खोशः पला [शिका]
पलाशिका राजधानीमें राजा रविवर्माने यह नियम निर्धारित किया कि राजा मृगेश वर्माके द्वारा दामकीर्तिकी माताको दिये गये पुरखेटक प्रामकी आयसे प्रतिवर्ष कार्तिककी पूर्णिमा तक अष्टाह्निक महोत्सव होना चाहिए । विद्वानों जिनमें प्रमुख कुमारदत्त हैं, जिन्होंने तपस्या की है और जिनका सम्प्रदाय उनके सत्कर्मोका साक्षी है, न्यायानुसार समस्त सम्मानका उपभोग करें तथा जनपदके वासी और नागरिक नर-नारीगण निरन्तर जिनदेवकी पूजा किया
करें।
रविवर्माके समान उसके भाई भानुवर्माने भी जैन धर्मकी उन्नति की । एक दानपत्रमें बताया है कि उसने पूर्णमासीके दिन जिनदेवका अभिषेक करनेके निमित्तसे जैनोंको भूमिदान दिया था। यह भूमि पलाशिकामें थी और उसे बण्डरभोजकने स्वीकार किया था।
राजा रविवर्माके पुत्र हरिवर्माने अपने राज्यकालके चतुर्थ वर्षमें एक दानपत्र प्रचलित किया था जिससे ज्ञात होता है कि उसने अपने चाचा शिवरथके उपदेशसे कूर्चक सम्प्रदायके वारिषेणाचार्यको वसन्त वाटक ग्राम दान में दिया था। इस दानका उद्देश्य पलाशिकामें भारद्वाज वंशी सेनापति सिंहके पुत्र मृगेशवर्मा द्वारा बनवाये गये जिनालयमें वार्षिक अष्टाह्निक पूजाके अवसर पर कृताभिषेक किया जाना तथा उससे जो धन बचे उसके द्वारा समस्त सम्प्र. दायको भोजन कराना आदि अभीष्ट था। इसी राजाने अपने राज्यके पांचवें वर्ष में सेन्द्रकवंश के राजा भानुशक्तिको प्रार्थनासे धर्मात्मा पुरुषोंके उपयोगके लिए तथा एक मन्दिरको पूजाके लिए "मरदे" नामक गाँव दानमें दिया था। यह मन्दिर क्षमण सम्प्रदायका था जिसे अहरिष्टी कहते हैं और आचार्य धर्मनन्दि उसके प्रबन्धक थे।
इस तरह कदम्ब वंशके राजाओंने जैनधर्मके अभ्युत्थानके लिए अनेक प्रयत्न किये ।
राष्ट्रकूट वंशी गोविन्द तृतीयका पुत्र अमोघवर्ष जैन-धर्मका महान् उन्नायक, संरक्षक और आश्रयदाता हुआ है। इसका समय ई० सन् ८१४-८७८ ई० है। जब यह सिंहासनपर आसीन हुआ तब इसकी अवस्था ९-१० वर्षकी ही थी। अतः उसके चाचा इन्द्रका पुत्र कर्कराज जो गुर्जर देशका शासक था, अमोघवर्णका अभिभावक एवं संरक्षक नियुक्त हुआ। अमोघवर्षकी बाल्यावस्थाका लाभ उठाकर साम्राज्यमें अनेक स्थानोंपर विद्रोह हुए । गंग पल्लवपाण्ड्य पूर्वी चालुक्य आदि अधीनस्थ राजा भी विरुद्ध हो गये। ८१७ ई० में बोगिके विजयादित्य द्वितीय और गंगावाडिके राचमल्ल प्रथमके प्रोत्साहनमें साम्राज्यके दक्षिणी भागोंके अनेक सामन्तोंने विद्रोह किया, किन्तु कर्कराजको स्वामिभक्ति, वीरता, बुद्धिमत्ता एवं तत्परताके कारण इन सब विद्रोहोंका दमन हुआ और ई० सन् ८२१ ई० तक स्थिति शान्त हो गयी। १. वही, अभिलेख संख्या १००, पृ० ७५ २. मिडियेवल जैनिज्म, पृ० ३३ तथा दक्षिण भारतमें जैनधर्म, पृ० ८६ ३, वही, अभिलेख संख्या १०२, पृ० ७८